SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३३१. कुसलविभागसरिसओ, ३३६. बहुएहि वि मासेहि, एगो जइ दिज्जती तु पच्छित्तं । गुरू य साधू य होंति वणिया वा । एवं बहु सेवित्ता, एक्कसि विगडेमु चोदेति ।। रासभसमा य मासा, शिष्य ने कहा-गीतार्थ मुनि ने अयतना से अनेक मासों की मोल्लं पुण रागदोसा उ।। प्रतिसेवना की है और उसे एकवेला में आलोचना करने के कारण कुशलविभाग करने वाले के तुल्य हैं गुरु (आगमव्यवहारी एक मास का ही प्रायश्चित्त दिया जाता है तो हम भी अनेक मासों अथवा श्रुतव्यवहारी), वणिजतुल्य हैं साधु, रासभतुल्य हैं मास का प्रतिसेवन कर एकवेला में आलोचना करेंगे, क्योंकि हमें भी तथा मूल्य है राग-द्वेष तुल्य। तब एक मास का ही प्रायश्चित्त प्राप्त होगा। ३३२. वीसुं दिण्णे पुच्छा, दिलुतो तत्थ दंडलतिएण। ३३७. मा वद एवं एक्कसि, विगडेमो सुबहुए वि सेवित्ता। दंडो रक्खा तेसिं, भयजणणं चेव सेसाणं ।। लब्भिसि एवं चोदग! देंते खल्लाड खडगं वा ।। गीतार्थ और अगीतार्थ को पृथक्-पृथक् विषम प्रायश्चित्त आचार्य ने कहा-शिष्य! ऐसा मत कहो कि अनेक देने के विषय में शिष्य प्रश्न करता है। आचार्य कहते हैं-यहां मासिकस्थानों की प्रतिसेवना कर हम एकसाथ आलोचना करेंगे। 'दंडलातिक' का दृष्टांत है। राजा ने दंड की रक्षा की। दंडिकों को इस प्रकार हे शिष्य! तुम महान् अपराध को प्राप्त होओगे जैसे दंडित करने पर शेष व्यक्तियों में भय उत्पन्न हो गया। (इस गाथा वह खल्वाट को खडुका मारने वाला हुआ था। का विस्तृत अर्थ आगे की गाथाओं में।) ३३८. खल्लाडगम्मि खडुगा, दिन्ना तंबोलियस्स एगेणं । ३३३. दंडतिगं तु पुरातिगे, ठवितं पच्चंतपरनिवारोहे । सक्कारेत्ता जुयलं, दिन्नं बितिएण वोरवितो ।। भत्तट्ठ तीसतीसं, कुंभग्गह आगया जे तु ।। ३३९. एवं तुमं पि चोदग! एक्कसि पडिसेविऊण मासेणं । ३३४. कामं ममेदकज्जं, कयवित्तीएहि कीस भे गहितं । मुच्चिहिसी बितियं पुण, लब्भसि मूलं तु पच्छित्तं ।। एस पमादो तुज्झं, दस दस कुंभे दलह दंडं ।। एक तांबोलिक खल्वाट था। एक चारभट का पुत्र उसकी __ एक राजा ने अपने तीन गांवों की रक्षा के लिए तीन दुकान पर आता और तांबोलिक के सर पर टकोरा मारता। उस दंडिको-पुररक्षकों को पृथक्-पृथक् भेजा। एक बार उन पुरों को तांबोलिक ने उस लड़के का सत्कार किया और उपहारस्वरूप प्रत्यंत राजा ने घेर लिया। पुर-रक्षकों की खाद्य सामग्री खुट गयी वस्त्रयुगल दिया। (इस लोभ से) उस लड़के ने दूसरे खल्वाट के तब उन्होंने अपने-अपने अधीनस्थ धान्य-कोष्ठागारों से तीस- सिर पर टकोरा मारा। उस खल्वाट ने लड़के को पकड़कर मार तीस कुंभ धान्य निकाल कर निर्वाह किया। फिर प्रत्यंत राजा को डाला। इसी प्रकार हे शिष्य! तुम सोचते हो कि अनेक जीतकर वे अपने राजा के पास आये और कहा-आपका कार्य प्रतिसेवनाओं का एक बार आलोचना कर मासिक प्रायश्चित्त संपादित करते हुए हमने तीस-तीस कुंभ धान्य ग्रहण किया है। लेकर मुक्त हो जाऊंगा, परंतु दूसरी बार वैसी प्रतिसेवनाएं कर राजा ने कहा-हां, वह मेरा ही कार्य था। किंतु तुम मेरे यहां आलोचना करोगे तो मूल या छेद प्रायश्चित्त प्राप्त करोगे। आजीविका कर रहे हो, तुमको मासिकवृत्ति भी मिलती है, फिर ३४०. असुहपरिणामजुत्तेण, सेविए एगमेग मासो तु । तुमने धान्य कैसे निकाला? यह तुम्हारा प्रमाद है। इस प्रमाद के दिज्जति य बहुसु एगो, सुहपरिणामो जया सेवे ।। लिए तुम तीनों को दस-दस कुंभ धान्य का दंड दिया जाता है। एक मुनि अशुभ परिणामों से युक्त होकर प्रतिसेवना करता तुम तीनों दस-दस कुंभ धान्य कोष्ठागार में पहुंचाओ। (बीस- है। उसे एक मास का पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता है। यदि कोई बीस कुंभ तुम्हें माफ किया जाता है।) मुनि शुभ परिणामों से यतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है, तो ३३५. तित्थगरा रायाणो, जतिणो दंडा य कायकोद्वारा। उसको अनेक मासिक प्रतिसेवनाओं में भी एक मास का ही असिवादिवुग्गहा पुण, अजय-पमायारुहण दंडो।। प्रायश्चित्त आता है। तीर्थकर राजस्थानीय हैं। साधु दंडिक-रक्षक स्थानीय है। ३४१. दिण्णमदिण्णो दंडो, सुह-दुहजणणो उ दोण्ह वग्गाणं । काय-पृथिवीकाय आदि कोष्ठागार स्थानीय हैं। अशिव आदि साहूणं दिण्णसुहो, अदिण्णसोक्खो गिहत्थाणं ।। कारण हैं। व्युद्ग्रह स्थानीय हैं-अयतना, प्रमाद, रोधनदंड है दो वर्ग हैं-साधुवर्ग और गृहस्थवर्ग। एक को दंड देना मासिक आदि। सुखजनक होता है और एक को दुःखजनक। साधु को दिया गया दंड सुखहेतुक होता है और गृहस्थ को दिया गया दंड दुःखहेतुक १. गीतार्थ मुनि के अयतना प्रसंग के निवारण के लिए, अगीतार्थ मुनि का का संकलन कर एक मास का दंड दिया जाता है, जैसा राजा ने प्रमाद निवारण के लिए सभी प्रतिसेवित मासों की सम-विषम दिनों दंडिकों को दिया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only कार www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy