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________________ ३४४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २. एक दायक एक भिक्षा अनेक बार विच्छिन्नरूप में देता सर्वसंख्या से ये सात विकल्प हुए। अभिग्रही इनमें से किसी एक को ग्रहण करता है। ३. एक दायक अनेक भिक्षा को अविच्छिन्नरूप से एकबार ३८२०. सुद्धं तु अलेवकडं, अहवण सुद्धोदणो भवे सुद्धं । देता है। संसट्ठ आयत्तं, लेवाडमलेवर्ड चेव॥ ४. एक दायक अनेक भिक्षा को अनेक बार विच्छिन्न- ३८२१. फलितं पहेणगादी, वंजणभक्खेहि वा विरइयं तु। विच्छिन्नरूप में देता है। भोत्तुमणस्सोवहिय, पंचम पिंडेसणा एसा।। ३८१६. णेगा एवं एक्कसि, णेगा एगं च णेगसो वारे। अलेपकृत शुद्ध होता है अथवा शुद्धोदन (व्यंजनरहित) णेगा णेगा एक्कसि, णेगा णेगा य बहुवारे॥ शुद्ध होता है। गृहीत भोजन में से साधु को दान देने के लिए हाथ अनेक दायक तथा एक अनेक भिक्षा में दत्तियां संबंधी डाला। वह लेपकृत अथवा अलेपकृत संसृष्ट कहलाता है। फलित चतुर्भंगी का अर्थ है-वह भोजन जो नाना प्रकार के व्यंजनों तथा भक्ष्यों से १. अनेक दायक एक भिक्षा को एक बार अव्यवच्छेद से निष्पन्न है। प्रहेणक-जो अनेक प्रसंगों पर उपहाररूप में दिया देते हैं। जाता है। उपहृत शब्द का अर्थ है-पास में लेना। यह पांचवीं २. अनेक दायक एक भिक्षा को अनेक बार व्यवच्छेद पूर्वक पिंडैषणा है। देते है। २८२२. सुद्धग्गहणेणं पुण, होति चउत्थी वि एसणागहिता। ३. अनेक दायक अनेक भिक्षा को एकत्रित कर एक बार संसढे उ विभासा, फलियं नियमा तु लेवकडं। देते हैं। शुद्ध के ग्रहण से गैथी अल्पलेपा ऐषणा भी गृहीत हो ४. अनेक दायक अनेक भिक्षा को व्यवच्छेदपूर्वक बहुत जाती है। संसृष्ट में विकल्प है-कदाचित् लेपकृत और कदाचित् बार देते हैं। अलेपकृत। फलित नियमतः अलेपकृत ही होती है। ३८१७. पाणिपडिग्गहियस्स वि, एसेव कमो भवे निरवसेसो। ३८२३. पगया अभिग्गहा खलु,सुद्धयरा ते य जोगवड्डीए। गणवासे निरवेक्खो, सो पुण सपडिग्गहो भइतो॥ इति उवहडसुत्तातो, तिविहं दुविहं च पग्गहियं ।। करपात्री मुनि के भी यही क्रम निरवशेषरूप में ज्ञातव्य है। पूर्वसूत्र में शुद्धोपहृत में अभिग्रह का अधिकार है। अभिग्रह वह गणवास से निरपेक्ष होता है। उसका पाणिपतद्ग्रह वैकल्पिक शुद्धतर होते हैं क्योंकि वे योगवृद्धिकर होते हैं। इसलिए उपहृत होता है। सूत्र के अनंतर त्रिविध अथवा द्विविध प्रगृहीत (अवगृहीत) का ३८१८. दोण्हेगतरे पाए, गेण्हति उ अभिग्गही तिहोवहडं। कथन है। दुविधं एगविधं वा, अभिहडसुत्तस्स संबंधो॥ ३८२४. पग्गहितं साहरियं, पक्खिप्पंतं च आसए तह य। करपात्री (जिनकल्पिक) और पतद्ग्रहधारी (स्थविर तिविधं तं दुविधं पुण, पग्गहियं चेव साहरियं ।। कल्पी) इन दोनों में से एक पात्र में भिक्षा ग्रहण करता है। उपहृत' अवगृहीत के तीन अथवा दो प्रकार हैं। तीन प्रकारतीन प्रकार का, दो प्रकार का अथवा एक प्रकार का होता है। यह प्रगृहीत, संहृत (परोसना) तथा मुंह में प्रक्षिप्त। दो प्रकार अभिहृत सूत्र के साथ संबंध है। हैं-प्रगृहीत तथा संहृत। ३८१९. सुद्धे संसढे या, फलितोवहडे य तिविधमेक्केक्के। ३८२५. बहुसुतमाइण्णं न उ, बाहियऽण्णेहि जुगप्पहाणेहिं। तिन्नेग दुगं तिन्नि उ, तिगसंजोगो भवे एक्को। आदेसो सो उ भवे, अधवावि नयंतरविगप्पो।। तीन प्रकार का उपहृत-शुद्ध उपहृत, संसृष्ट उपहृत, आदेश (मतांतर) का लक्षणफलित उपहृत। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-ग्रहण, संहरण जो बहुश्रुतों के द्वारा आचीर्ण है, जो युगप्रधान आचार्यों तथा (बर्तन के) मुंह में प्रक्षेप। एक के संयोग में तीन भंग- द्वारा बाधित नहीं है, वह अथवा नयान्तरों से व्याख्यापित होता है १. शुद्धोपहृत का ग्रहण २. फलितोपहृत का ग्रहण वह आदेश कहलाता है। ३. संसृष्टोपहृत का ग्रहण। द्विक् संयोग में तीन विकल्प- ३८२६. साहीरमाणगहियं, दिज्जंतं जं च होति पाउग्गं। ४. शुद्धोपहृत फलितोपहृत ५. शुद्धोपहृत संसृष्टोपहृत ६. पक्खेवए दुगुंछा, आदेसो कुडमुहादीसु॥ फलितोपहृत संसृष्टोपहृत। त्रिक् संयोग में एक विकल्प होता है गृहीत का अर्थ है-जो दीयमान है, प्रायोग्य है। संहृत का ७. शुद्धोपहृत, फलितोपहृत संसृष्टोपहृत ग्रहण करता है। अर्थ है-जिसका संहरण किया जा रहा है, जिसको निकाला जा १. वृत्तिकार मलयगिरी ने 'उवहड' शब्द का संस्कृत रूपांतरण उपहूत (उपहृतः?) कर उसका अर्थ खाने की इच्छा किया है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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