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नौवां उद्देशक
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रहा है, परोसा जा रहा है। प्रक्षिप्त का अर्थ है-मुंह में प्रक्षेपण। इससे जुगुप्सा पैदा होती है। (उच्छिष्ट होने के कारण)। इस विषयक आदेश-मतांतर यह है-मुख का अर्थ है घटमुख आदि।
('आसगंसि पक्खिवति' का मतांतर से अर्थ है-पिठर (बर्तन) के मुख आदि में प्रक्षिप्त करना।) ३८२७. ओग्गहियम्मि विसेसो, पंचमपिंडेसणाउ छट्ठीए।
__ तं पि य हु अलेवकडं, नियमा पुवुद्धडं चेव॥
उपहृत सूत्र में पांचवीं पिंडैषणा का कथन किया गया था। अवगृहीत सूत्र में पिंडैषणा से आगे जो षष्ठी पिंडैषणा है, उसका कथन है। वह भी अलेपकृत है तथा नियमतः पूर्वो से उद्धृत है। ३८२८. भुंजमाणस्स उक्खित्तं, पडिसिद्धं च तेण तु।
जहण्णोवहडं तं तू, हत्थस्स परियत्तणे॥ भोजन करने वाले की थाली में डालने के लिए व्यक्ति ने पात्र से चावल उठाए। भोजन करने वाले व्यक्ति ने प्रतिषेध किया। इतने में साधु आ गए। उसने चावल साधुओं को दे दिए। यह हाथ मात्र का परिवर्तन है। यह जघन्य उपहृत है। ३८२९. अह साहीरमाणं तु, वट्टेउं जो उ दावए।
दलेज्जऽचलितो तत्तो, छट्ठा एसा वि एसणा।
जो भोजन ले जा रहा है (संह्रियमाण) उसे वर्तित कर उससे भोजन साधु को दिलाता है और वह वहां से एक कदम भी नचलता हुआ साधु को देता है-यह संह्रियमाण कहलाता है। यह भी छठी एषणा है। ३८३०. भुत्तसेसं तु जं भूयो छुभंती पिठरे दए।
__ संवद्धंतीव अन्नस्स, आसगम्मि पगासए।
भोजन करने के पश्चात् जो बचा है उसे पुनः पिठर (बर्तन) में डाला जाता है। अथवा साधु को दिया जाता है। अथवा अन्य प्रकाशमुखवाले (चौड़े मुखवाले) भाजन में उस भुक्तशेष भोजन को संवर्धित करता है, रख देता है। यह 'आसंगसि पक्खिवई' की व्याख्या है।
नौवां उद्देशक समाप्त
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