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________________ नौवां उद्देशक ३४३ उपाश्रय में आगत की यह विधि है करने वाला प्रथम तीन संहननों में से किसी एक संहननवाला हो, ३८०३. उण्होदगे य थोवे, तिभागमद्धे तिभागथोवे य।। धृतिसंपन्न हो। महुरगभिन्ना महुरग, एक्केक्कं सत्तदिवसाइं॥ ३८१०. स साहियपतिण्णो उ, नीरोगो दुहतो बली। ३८०४. ओदणं उसिणोदेणं, दिणे सत्त उ भुंजिउ। मितं गेण्हति सुद्धञ्छं, सुत्तस्सेस समुप्पदा।। जूसमंडेण वा अन्ने, दिणे जावेति सत्त उ॥ मोकप्रतिमासाधक अपनी प्रतिज्ञा को सिद्ध कर लेता है। ३८०५. मधुरोल्लेण थोवेण, मीसे तइय सत्तए। वह नीरोग, धृति और संहनन-दोनों से बली, दत्तिसंख्या से तिभागद्धजुतं चेव, तिभागो थोवमीसियं। परिमित शुद्ध उंछ ग्रहण करता है। दत्ति के परिमाण के प्रतिपादन ३८०६. मधुरेणं य सत्तन्ने, भावेत्ता उल्लणादिणा। के लिए सूत्र का समुत्पाद-प्रवृत्ति हुई है। यही सूत्रसंबंध है। दधिगादीण भावेत्ता, ताहे वा सत्त सत्तए।। ३८११. हत्थेण व मत्तेण व, भिक्खा होति समुज्जता। (ये गाथाएं तथा टीका में इनकी व्याख्या अस्त-व्यस्त है। दत्तिओ जत्तिए वारे, खिवंति होति तत्तिया।। इनकी व्याख्या इस प्रकार है-) हाथ या पात्र में जो समुद्यत-उत्पादित होती है वह है प्रथम सप्ताह गर्म पानी के साथ चावल खाए। भिक्षा। वही भिक्षा जितनी बार टुकड़े-टुकड़े में (विच्छिन्नरूप में) दूसरे सप्ताह में दाल के पानी अथवा मांड के साथ। दी जाती है, वे उतनी ही दत्तियां होती हैं। तीसरे सप्ताह में तीन भाग गर्म पानी तथा थोड़े मधुर दही ३८१२. अव्वोच्छिन्ननिवाताओ, दत्ती होति उ वेतरा। के साथ चावल। एगाणेगासु चत्तारि, विभागा भिक्खदत्तिसु॥ चौथे सप्ताह में दो भाग गर्म पानी तथा दो भाग मधुर दही अव्यवच्छिन्न निपात अर्थात् जिसका निपात व्यवच्छिन्न के साथ चावल। नहीं होता, मध्य में टूटता नहीं, वह होती है दत्ती। इससे इतर पांचवे सप्ताह में अर्द्ध गर्म पानी और अर्द्ध भाग मधुर दही । होती है भिक्षा। भिक्षा तथा दत्तियों के एक-अनेक विषय में चार के साथ चावल। विकल्प होते हैंछठे सप्ताह में तीन भाग गर्म पानी और दो भाग मधुर दही १. एक भिक्षा एक दत्ती। के साथ चावल। २. एक भिक्षा अनेक दत्तियां। सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा गर्म पानी मिलाकर ३. अनेक भिक्षा एक दत्ती। उसके साथ चावल। ४. अनेक भिक्षा, अनेक दत्तियां ३८०७. एवमेसा तु खुड्डीया, पडिमा होति समाणिया। ३८१३. एगा भिक्खा एगा, दत्ति एग भिक्खऽणेग दत्ती उ। भोच्चारुभते चोदेणं, अभोच्चा सोलसेण तु॥ __णेगातो वि य एगा, णेगाओ चेव णेगाओ। इस प्रकार यह क्षुल्लिका मोकप्रतिमा को स्वीकार करने इसी प्रकार एक-अनेक दायक तथा एक-अनेक वाला साधक यदि भोजन करता हुआ आरोहण करता है तो भिक्षा-इनसे संबंधित भी चतुर्भंगी होती हैउसकी समाप्ति चतुर्दशक (सात उपवास) से होती है और अभुक्त १. एक दायक एक दत्ती (भिक्षा)। अवस्था वाले साधक को षोडशक (आठ उपवास) से उसकी २. एक दायक अनेक दलियां। समाप्ति होती है। ३. अनेक दायक एक दत्ती। ३८०८. एमेव महल्ली वी, अट्ठारसमेण नवरि निट्ठाती। ४.अनेक दायक अनेक दत्तियां। परिहारो अट्ठदिवसा, न हु रोगि बलिस्स वा एसा।। ये चारों विकल्प करभोजी तथा पात्रभोजी में होते हैं। इसी प्रकार महल्लिका मोकप्रतिमा अष्टादशक (नौ ३८१४. एमेव एगणेगे, दायगभिक्खासु होइ चउभंगी। उपवास) से समाप्त होती है। परिहारतप आठ दिन का होता है। एगो एगं दत्ती, एगो गाउ णेग एगा उ॥ साधक प्रतिमा के प्रभाव से रोगग्रस्त नहीं होता। अथवा बलवान् णेगा य अणेगाओ, पाणीसु पडिग्गहधरेसु॥ व्यक्ति ही इसे धारण कर सकता है। ३८१५. एगो एगं एक्कसि, एगो एक्कं बहुसो ऊ वारे। ३८०९. पडिवत्ती पुण तासिं, चरिमनिदाघे व पढमसरए वा। __ एगो णेगा एक्कसि, एगो णेगा य बहुसो य॥ संघयणधितीजुत्तो, फासयती दो वि एयाओ।। एक दायक तथा एक-अनेक भिक्षा में दत्तियां संबंधी इन दोनों प्रतिमाओं की प्रतिपत्ति चरमग्रीष्मकाल में अथवा चतुर्भगीशरद् ऋतु के प्रारभ मे का जाती है। इन प्रतिमाओ को धारण १. एक दायक एक भिक्षा को एक बार देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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