SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ की प्राप्ति होती है । ३७८९. पहिमाहिगारपगते, हवंति मोयपडिमा इमा दोण्णि । ता पुण गणम्मि वुत्ता, इमा उ बाहिं पुरादीणं ॥ प्रतिमा का अधिकार प्रकृत है। ये दो मोक प्रतिमाएं हैं इनका भी यहां न्यास किया गया है। पूर्व प्रतिमाएं गण में स्थित कही गई हैं तथा ये दो प्रतिमाएं पुर आदि के बहिर् स्थित मुनियों की है। ३७९०. सव्वाओ पडिमाओ, साधुं मोयंति पावकम्मेहिं । एतेण मोयपडिमा अधिगारो इह तु मोएणं ॥ पापकर्मों से साधु को मुक्त करती है इसलिए सभी प्रतिमाएं मोक प्रतिमाएं कही जाती हैं। प्रस्तुत में मोक- कायिकी का विशेष अधिकार है। ३७९१. एगदुमो होति वणं, एमाजातीय जे जहिं रुक्खा। विवरीयं तु विदुग्गं, एसेव य पव्वए वि गमो ॥ एक द्रुम वाला अर्थात् एक जातीय वृक्षों वाला वन होता है तथा इससे विपरीत अर्थात् नानाजातीय वृक्षों वाला विदुर्ग कहलाता है। यही व्याख्या पर्वत के लिए है। नाना रूप पर्वत 'पर्वतविदुर्ग' कहलाता है। ३७९२. निसज्जं चोलपट्टं, कप्पं घेत्तूण मत्तगं चेव । एगंते पडिवज्जति, काऊण दिसाण वालोयं ॥ मोक प्रतिमा के लिए जाने वाले की विधि सानुवाद व्यवहारभाष्य ३७९५ किमिकुट्ठे सिया पाणा, ते य उण्हाभिताविया । मोएण सद्धि एज्जण्डु, निसिरेते तु छाहिए ॥ कृमिसंकुल उदर में प्राणी होते है । वे गर्मी से अभितस होकर प्रस्रवण के साथ आते है, अतः उन्हें छाया में परिष्ठापित करे। Jain Education International । ३७९६. बीयं तु पोम्गला सुक्का, ससणिद्धा तु चिक्कणा । पडंति सिथिले देहे, खमणुहाभिताविया ॥ बीज का अर्थ है- शुक्र के पुद्गल वे दो प्रकार के हैंचिक्कण और अचिक्कण चिक्कण पुद्गल सस्निग्ध कहलाते हैं। शिथिल देह में तपस्या की उष्णता से तप्त होकर मूत्र के माध्यम से गिर जाते हैं, प्रस्रवित हो जाते हैं । ३७९७, पमेहकणियाओ य, सरक्खं पाहु सूरयो । सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कज्जं न साधए ॥ आचार्यों ने प्रमेहकणिका को सरजस्काधिकराज कहा है। वह दोषकर होता है । वह कार्य का साधक नहीं होता, अर्थात् वह रोगमुक्ति का कारण नहीं बनता। ३७९८. बहुगी होति मत्ताओ, आइल्लेसु दिणेसु तु । कमेण हायमाणी तु अंतिमे होति वा न वा ॥ प्रारंभिक दिनों में कायिकी की मात्रा बहुत होती है। वह क्रमशः कम होती हुई अंतिम दिन में होती भी है अथवा नहीं। ३७९९. पडिणीयऽणुकंपा वा, मोयं वद्धंति गुज्झगा केई । बीजाविजुतं जं वा विवरीयं उन्झए सव्वं ॥ प्रत्यनीकता से अथवा अनुकंपा से कुछेक गुह्यक देव प्रस्रवण की मात्रा बढ़ा देते हैं अथवा वे उसको बीज आदि से युक्त कर देते हैं। यह सारा विपरीत होता है, अतः सारा त्यजनीय है। ३८००. दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होति सा चउविगप्पा । दव्वे तु होति मोयं, खेत्ते गामाइयाण बहिं || ३८०१. काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इतरं वा । सिद्धाए पडिमाए कम्मविमुक्को हवति सिद्धो ॥ ३८०२. देवो महिडिओ वावि, रोगातोऽहव मुच्चती । जायती कणगवण्णो उ, आगते य इमो विही ॥ क्षुल्लिका मोकप्रतिमा चार के आश्रित होती है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य है मोक। क्षेत्र - गांव आदि के बाहर । काल- दिन में अथवा रात में। भाव- स्वाभाविक अथवा इतर । इस प्रतिमा के सिद्ध होने पर साधक कर्मविमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है अथवा महर्द्धिक देव अथवा रोग से मुक्त हो जाता है। वह शरीर से कनकवर्णवाला हो जाता है। प्रतिमा को पूर्ण कर सप्तक से युत करने पर ५६ हुए। इसको गच्छार्द्ध से गुणन करना है। यह विषम है। अतः गुण्यराशि जो ५६ है उसको आधाकर, सप्तक गच्छ से गुणन करने पर १९६ होते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र ज्ञातव्य है । वह निषद्या, चोलपट्टक, कल्प तथा प्रस्रवण मात्रक लेकर गांव के बाहर एकांत में प्रतिमा स्वीकार करता है। वह दिशा का अवलोकन कर कायिकी का व्युत्सर्ग करता है, पीता है। ३७९३. पाउणति तं पवाए, तत्थ निरोहेण जिज्जते दोसा । सहादि परित्ताणं, व कुणति अच्चुण्हवाते वा ॥ प्रवात- अत्यधिक पवन के चलने पर वह उस कल्प को ओढ़ता है। वायु के निरोध से दोष जीर्ण हो जाते हैं। अथवा वह कल्प श्लक्ष्ण सचित्तरजों से परित्राण करता है अथवा अत्युष्ण वायु के चलने वह साधक उससे प्रावृत होता है। ३७९४. साभावियं च मोयं, जाणति जं वावि होति विवरीयं । पाण-बीयससणिन्द्रं सरक्खाधिराय न पिएन्जा ।। प्रतिमा प्रतिपन्न साधक जान जाता है कि कौन सा मोकप्रस्रवण स्वाभाविक है और कौन सा उससे विपरीत वह स्वाभाविक प्रस्रवण को पीता है और जो प्रस्रवण प्राणियों से संसक्त, बीज - शुक्र पुद्गलों से मिश्र सस्निग्ध है तथा सरजस्काधिराज अर्थात् प्रमेहकणिका से कलित होता है, उसे नहीं पीता । १. सप्तसप्ततिका में ७ आदि, ७ उत्तर और ७ गच्छ है। गच्छ को उत्तर से गुणन करने पर ७४७ = ४९ हुए। उसको उत्तर अर्थात् ७ से हीनकर आदि ७ को संयुत करने पर ४९ हुए। यह अंतिमधन है। इसको आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy