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________________ दसवां उद्देशक ३८१ ४३०१. आयारविणयगुणकप्पदीवणा अत्तसोहि उजुभावो। विषय में भी एषणा, स्त्रीदोषयुक्त वसति तथा व्रतों के संबंधित अज्जव-मद्दव-लाघव-तुट्ठी-पल्हायजणणं च॥ अतिचारों की आसेवना होती है-यह दर्शननिमित्त तथा चारित्र आलोचना के गुण-१. पांच प्रकार के आचार का सम्यक् के निमित्त होने वाली द्रव्यातिचारालोचना है। पालन होता है २. विनयगुण का प्रवर्तन होता है। ३. आलोचना ४३०७. अधवा तिगसालंबेण दव्वमादी चउक्कमाहच्च। करने के कल्प-परिपाटी का उपदर्शन होता है ४. आत्मा की आसेवितं निरालंबओ व आलोयए तं तु॥ विशोधि-निःशल्यता होती है ५. ऋजुभाव-संयम का पालन अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र-इस त्रिक के आलंबन से होता है ६. आर्जव, मार्दव और लाघव-अलोभत्व की वृद्धि होती कदाचित् द्रव्य आदि चतुष्क लक्षण अकल्पनीय आदि का है ७. मैं निःशल्प हो गया हूं, ऐसी तुष्टि होती है। ८. मैंने आसेवन होता है अथवा निरालंबन से भी इनका आसेवन होता आलोचना नहीं की, इस परितप्ति का नाश होता है, प्रह्लाद पैदा है। मुनि इन सबकी आलोचना करे। होता है। ४३०८. पडिसेवणाऽतियारे, जह वीसरिया कहिंचि होज्जाहि। ४३०२. पव्वज्जादी आलोयणा उ तिण्हं चउक्कग विसोधी। तेसु कह वट्टितव्वं, सल्लुद्धरणम्मि समणेणं॥ जह अप्पणो तह परे, कातव्वा उत्तमट्ठम्मि॥ यदि प्रतिसेवना के अतिचार किसी भी प्रकार से विस्मृत हो प्रव्रज्या-ग्रहण से प्रारंभ कर उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्यान को जाएं तो उनका शल्योद्धरण करने के लिए श्रमण को कैसे वर्तन स्वीकार करने पर्यंत तीनों में-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे करना चाहिए ? आचार्य कहते हैंअतिचारों की चतुष्क विशोधि अर्थात् द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः ४३०९. जे मे जाणंति जिणा, अवराधा जेसु जेसु ठाणेसु। और भावतः विशोधि से जैसे स्वयं की आलोचना करे वैसे ही पर ते हं आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं ।। की भी आलोचना करे। ४३१०. एवं आलोएंतो, विसुद्धभावपरिणामसंजुत्तो। ४३०३. नाणनिमित्तं आसेवियं तु, वितहं परूवियं वावि। आराहओ तह वि सो, गारवपलिकुंचणा रहितो।। चेतणमचेतणं वा, दव्वं सेसेसु इमगं तु॥ जिन-जिन स्थानों में मेरे द्वारा अपराध हुए हैं, उन सबको ज्ञान के निमित्त अकल्पनीय द्रव्य का सेवन करने, चेतन- जिनेश्वर देव जानते हैं। मैं उन सबकी आलोचना करने के लिए अचेतन विषयक मिथ्या प्ररूपणा करने के विषय में आलोचना सर्वभाव से-सर्वात्मना उपस्थित हुआ हूं। (मुझे उनकी स्मृति करना-यह द्रव्यतः अतिचारालोचना है। क्षेत्र आदि शेष की नहीं है अतः वचन से बता नहीं सकता। आप ही इसके प्रमाण आलोचना इस प्रकार है हैं।) यद्यपि यह आलोचना यथार्थ नहीं है फिर भी वह गौरव तथा ४३०४. नाणनिमित्तं अद्धाणमेति ओमे य अच्छति तदट्ठा।। परिकुंचना-माया से रहित होकर, विशुद्ध भावपरिणाम से युक्त नाणं व आगमेस्सं, ति कुणति परिकम्मणं देहे॥ आलोचना करता है तो वह आराधक है। ४३०५. पडिसेवति विगतीओ, मेज्झं दव्वं व एसती पिबती। ४३११. ठाणं पुण केरिसगं, होति पसत्थं तु तस्स जं जोग्गं। वायंतस्स व किरिया, कता तु पणगादिहाणीए॥ भण्णति जत्थ न होज्जा, झाणस्स उ तस्स वाघातो।। ज्ञान के निमित्त विहार करते हुए, दुर्भिक्ष में ज्ञान के लिए प्रश्न किया कि भक्तप्रख्याख्याता के लिए प्रशस्त और वहीं रहने, ज्ञान को ग्रहण करने के लिए शरीर का परिकर्म करने, योग्यस्थान कैसा होना चाहिए? आचार्य ने कहा-जहां उसके विगय का प्रतिदिन सेवन करने, मेधा को बढ़ाने वाले मेध्य द्रव्यों ध्यान का व्याघात न होता हो वह स्थान प्रशस्त है। की एषणा करने, उनका पान करने तथा वाचना देते हुए वाचना- ४३१२. गंधव्व-नट्ट जड्डऽस्स, चक्क-जंतऽग्गिकम्मपुरुसे य। चार्य की पंचकहानि से क्रिया करने-इन सबमें हुए अतिचारों, णंतिक्क-रयग-देवड, डोंबे पाडहिग रायपधे।। अकल्पों, अयतना आदि की आलोचना करना ज्ञाननिमित्त द्रव्य ४३१३. चारग कोट्टग कलाल, . आदि अतिचारालोचना है। करकय पुप्फ-फल दगसमीवम्मि। ४३०६. एमेव दसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि तत्थ णाणत्तं। आरामे अहवियडे, एसणा इत्थी दोसे, वतं ति चरणे सिया सेवा।। नागघरे पुव्वभणिए य॥ इसी प्रकार दर्शन के निमित्त द्रव्यातिचारालोचना होती है। ध्यान के व्याघात स्थल-गंधर्वशाला, नाट्यशाला, उसमें नानात्व यही है-दर्शन का तात्पर्य है श्रद्धान। चारित्र के हस्तिशाला, अश्वशाला, चक्रशाला-तिलपीडनशाला, इक्षुयंत्र१.शुद्ध आहार-पानी का लाभ न होने पर पांच दिनों के प्रायश्चित्तस्थान दस दिन का यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त स्थान का आसेवन का आसेवन कर उनकी प्राप्ति करना। यदि इतने पर भी लाभ न हो तो कर उनकी उपलब्धि करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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