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स्थविर जानना चाहिए। २२७०. अण्णो जस्सन जायति,
दोसो देहस्स जाव मज्झण्हो। सो विहरति सेसो पुण,
अच्छति मा दोण्ह वि किलेसो॥ प्रातःकाल से मध्याह्न तक विहरण करने से शरीर में कोई अन्य दोष (भ्रमी आदि) न हो तो वह विहरण करे। शेष दो सहायक व्यक्ति वहीं रह जाएं क्योंकि उन दोनों को क्लेश न हो जाए। २२७१. भमो वा पित्तमुच्छा वा, उद्धसासो व खुब्भति।
गतिविरए वि संतम्मि मुच्छादिसु न रीयति॥ विहरण न करने पर भी भ्रमी, पित्तनिमित्तकमूर्छा, ऊर्ध्व- श्वास क्षुब्ध हो जाए तो वह विहरण न करे। (वृद्धावास करे।) २२७२. चउभागे-तिभागद्धे, सव्वेसिं गच्छतो परीमाणं।
संतासंतसतीए, वुड्ढावासं वियाणाहि॥ गच्छगत सभी साधुओं का सद्भाव-असद्भाव के आधार पर परिभ्रमण कर उसमें से चतुर्थभाग, त्रिभाग अथवा अर्द्धभाग परिमाण साधुओं को वृद्धावास स्वीकार करने वाले मुनि को सहायक के रूप में देना चाहिए। इस प्रकार वृद्धावास को ससहाय जानना चाहिए। २२७३. अट्ठावीसं जहण्णेण, उक्कोसेण सतग्गसो।
सहाया तस्स जेहिं तु, उट्ठवणा न जायति॥ गच्छगत साधुओं का जघन्य परिमाण है-अठावीस और उत्कृष्ट परिमाण है-शताग्रशः अर्थात् सौ से बत्तीस हजार पर्यंत। वृद्धावास वाले को २८ का चतुर्भाग अर्थात् सात सहायक देने चाहिए। उनकी भी उपस्थापना-नित्य वसति नहीं होती, सदा साथ रहना नहीं होता। २२७४. चत्तारि सत्तगा तिण्णि,
दोण्णि एक्को व होज्ज असतीए। संतासती अगीता,
ऊणा तु असंतओ असती॥ सद्भाव परिमाण अर्थात् २८ साधुओं के परिमाण वाले संघ के सात-सात के चार सप्तक हुए। प्रत्येक सप्तक एक-एक मास तक वृद्ध की सेवा करता है। इस प्रकार तीन मास में पुनः वारी आती है। यदि सद्भाव अर्थात् २८ के अभाव में (२१ हों) तो तीन सप्तक, चौदह हों तो दो सप्तक बारी-बारी से सेवा में भेजे
सानुवाद व्यवहारभाष्य जाते हैं। यदि एक ही सप्तक हो तो वह सदा वृद्ध की परिपालना में रहे। अगीतार्थ मुनियों का सद्भाव होने पर भी वह असद्भाव ही है, क्योंकि वे वृद्ध के सहायक नहीं होते। असद्भाव न्यून का अर्थ है-स्वभाव से न्यून। २२७५. दो संघाडा भिक्खं, एक्को बहि दो य गेण्हते थेरं।
आलित्तादिसु जतणा, इहरा परिताव-दाहादी। (वृद्ध को सात सहायक क्यों ?) दो संघाटक भिक्षा के लिए घूमते हैं। एक साधु वसति के बाहर रक्षक के रूप में रहता है। दो साधु स्थविर के पास रहते हैं। वसति के आदीप्त आदि होने पर यतना हो सकती है। अन्यथा वृद्ध के परिताप, दाह आदि हो सकते हैं। २२७६. आहारे जतणा वुत्ता, तस्स जोग्गे य पाणए।
निवाय मउए चेव, छवित्ताणेसणादिसु॥
वृद्ध के योग्य आहार, पानक, निवात उपाश्रय, मृदुछवित्राण-वस्त्र इनकी एषणा करे। इनका अलाभ होने पर पंचक परिहानि से ऐषणा करे। यह चतुर्विध यतना है। २२७७. वुड्ढावासे जतणा, खेत्ते काले वसही संथारे।
खेत्तम्मि नवगमादी, परिहाणी एक्कहिं वसही।। वृद्धावास में (प्रकारांतर) चार प्रकार की यतना इस प्रकार है-क्षेत्र, काल, वसति और संस्तारक। क्षेत्र आदि में नवक की आदि में एकैक विभाग की परिहानि से एक विभाग में रहा जा सकता है। २२७८. भागे भागे मासं, काले वी जाव एक्कहिं सव्वं ।
पुरिसेसु वि सत्तण्हं, असतीए जाव एक्को उ॥
ऋतुबद्धकाल में एक-एक विभाग में एक-एक मास रहे तथा वसति, भिक्षा आदि सब एक ही भाग में ग्रहण करे। सहायक पुरुषों में सात के अभाव में यावत् एक पुरुष भी सहायक हो तो भले हो। २२७९. पुव्वभणिता तु जतणा, वसही भिक्खे वियारमादी य।
सच्चेव य होइ इहं, वुड्डावासे वसंताणं ।।
वसति, भिक्षा तथा विचारभूमी के विषय में जो यतना, पहले अर्थात् ओघनियुक्ति, कल्पाध्ययन में कही गई है वही वृद्धावास में रहने वालों के लिए है। २२८०. धीरा कालच्छेदं, करेंति अपरकम्मा तहिं थेरा।
कालं वा विवरीयं, करेंति तिविहा तहिं जतणा।। अपराक्रमी-जंघाबल से परिहीन धीर स्थविर वृद्धावास में
१. सद्भाव-गण में अनेक मुनि हैं, वे केवल अगीतार्थ हों तो उनका होना
न होना समान है। असद्भाव अर्थात् गण में अधिक मुनि नहीं हैं। २. क्षेत्र के नौ भाग कर, एक भाग में वसति ग्रहण कर वहीं संस्तारक, भिक्षा आदि ग्रहण करता हुआ शेष आठ भागों का परिवर्जन करता
है। इस प्रकार ऋतुबद्धकाल के ८ मासों में प्रतिमास एक-एक भाग में रहता हुआ, शेष आठ भागों का परिवर्जन करता है। वर्षाऋतु के चार मासों में नौवें विभाग में वसति आदि ग्रहण कर शेष आठ विभागों का परिहार करता है।
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