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________________ चौथा उद्देशक प्रमाण होता है उसमें नववर्ष के गृहस्थपर्याय को छोड़कर उतना उत्कृष्ट वृद्धावासकाल होता है। २२५८. विज्जा कया चारिय लाघवेण, तत्तो तवो देसितसिद्धिमग्गो । अहाविहिं संजम पालइत्ता, दीहाउणो वुडवासस्स कालो ॥ कृतविद्या, चरितत-घूमना, लाघव से रहना, फिर तप, सिद्धिमार्ग की देशना, यथाविधि संयम का पालन करना, दीर्घायुष वृद्धवास का काल। (इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में ।) २२५९. सुत्तागम बारसमा, चरियं देसाण दरिसणं तु कतं । उवकरण-देह-इंदिय, तिविधं पुण लाघवं होति ॥ विद्या अर्थात् सूत्रागम । बारह वर्षों तक सूत्रागम (सूत्र, अर्थ तथा तदुभय) का अध्ययन किया। फिर चरित - देशदर्शन के लिए बारह वर्ष घूमे। तीन प्रकार के लाघव-उपकरणलाघव, देहलाघव, इंद्रियलाघव का अभ्यास किया । २२६०. चउत्थछट्ठादि तवो कतो उ, अव्वोच्छित्ताय होति सिद्धिपहो । सुत्तविही संजम, वुढो अह दीहमाउं च ॥ चतुर्थ, षष्ठ आदि तपस्या की। शासन की अव्यवच्छित्ति के लिए सिद्धिपथ - मोक्षमार्ग की देशना दी। सूत्रविधि से संयम का पालन किया। वह वृद्ध हो गया। आयुष्य दीर्घ हो गया। २२६१. अब्भुज्जतमचएंतो, अगीतसिस्सो व गच्छपडिबद्धो । २१३ पर, करनी हो, अथवा संयम को वृद्धिंगत करने वाले क्षेत्रों की अप्राप्ति होने , संलेखना स्वीकार करने पर, तरुणप्रतिकर्म-तरुण मुनि वृद्धि के लिए इन कारणों से वृद्धावास किया जा सकता है। (इन गाथाओं की संपूर्ण व्याख्या २२९९ गाथाओं तक ) २२६४. दुण्णि वि दाऊण दुवे, सुत्तं दाऊण अत्थवज्जं च । दोणी दिवमेगं, तु गाउयं तीसु अणुकंपा । दो पौरुषियों-सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी को देकर अथवा केवल सूत्रपौरुषी को देकर अथवा केवल अर्धपौरुषी को देकर दो गव्यूति तक जाकर भिक्षावेला से पूर्व आ जाता है वह सपराक्रम है, जंघाबल से क्षीण नहीं है। जो इन तीनों प्रकारों में डेढ़ गव्यूति तक आ जा सकते हों उनकी अनुकंपा यह है । २२६५. खेत्तेण अद्धजोयण, कालेणं जाव भिक्खवेला उ । खेत्तेण य कालेण य, जाणसु सपरक्कमं थेरं ॥ जो कालतः अर्थात् प्रातः काल से यावत् भिक्षावेला तक, क्षेत्रतः - अर्धयोजन (गव्यूतिद्वय) तक जा सकता है उसको क्षेत्र और काल से सपराक्रम स्थविर जानना चाहिए। २२६६. जो गाउयं समत्यो, सूरादारब्भ भिक्खवेला उ । विहरउ एसो सपरक्कमो, न विहरे उ तेण परं ॥ सूर्योदय से आरंभ कर भिक्षावेला तक गव्यूत तक जाने में समर्थ हो वह सपराक्रम है, वह विहरण करे। जो इतने समय में व्यूत प्रमाणक्षेत्र तक नहीं जा सकता, वह विहरण न करे। २२६७. वीसामण उवगरणे, भत्ते पाणेऽवलंबणे चेव । गाउय दिवडुदोसुं, अणुकंपे सा तिसुं होति ॥ जहां-जहां मध्य में विश्राम करने के लिए ठहरता है, वह करे। उसके उपकरणों को वहन करे, भक्तपान लाकर दे, हाथ आदि का अवलंबन दे । 'च' शब्द से उसके गमनागमन का विवेक रखे। यह अनुकंपा गव्यूत, डोढ़ गव्यूत, दो गव्यूत तक विहरण करने वाले तीनों प्रकार के स्थविरों के लिए है। २२६८. अधवा आहारुवधी, सेज्जा अणुकंप एस तिविधा उ पढमालिदाणविस्सामणादि, उवधी य वोढव्वे ॥ अच्छति जुण्णमहल्लो, कारणतो वा अजुण्णो वी ॥ वह अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प अथवा अनशन) करने में असमर्थ है। उसके शिष्य अगीतार्थ हैं, इसलिए वह गच्छप्रतिबद्ध है, गच्छ के परिपालन में प्रवृत्त है। वह अत्यंत जीर्ण हो जाने के कारण वृद्धवास करता है। अथवा अजीर्ण होने पर भी कारणवश वृद्धवास करता है। २२६२. जंघाबले च खीणे, अहवावि उत्तमट्ठे, २२६३. खेत्ताणं च अलंभे, गेलण्णऽसहायता व दुब्बल्ले । निप्फत्ती चेव तरुणाणं ॥ कतसंलेहे य तरुणपडिकम्मे । एतेहिं कारणेहिं, वुड्डावासं वियाणाहि ॥ उसका जंघाबल क्षीण हो गया है, वह ग्लान हो गया है। २२६९. खेत्तेण अद्धगाउय, कालेण य जाव भिक्खवेला उ । अथवा दूसरे के ग्लान हो जाने पर, वह असहाय हो गया है, दुर्बलता से पीड़ित है, अथवा उत्तमार्थ-आमरण अनशन स्वीकार कर लिया है, अथवा तरुण मुनियों की सूत्र और अर्थ से निष्पत्ति १. उपकरणलाघव-न अतिरिक्त उपकरण लेना और जो है उसका सूत्रविधि से परिभोग करना । शरीरलाघव-न अतिकृश और न खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कमं थेरं ॥ जो कालतः अर्थात् सूर्योदय से भिक्षावेला तक, क्षेत्रतः अर्ध व्यूत तक जा सकता है, उसे क्षेत्र और काल से अपराक्रम अतिस्थूल । इंद्रियलाघव-इंद्रियजयी । Jain Education International For Private & Personal Use Only अथवा अनुकंपा के तीन प्रकार हैं-आहारविषयक, उपधिविषयक तथा शय्याविषयक । आहारविषयक-प्रातराश लाकर देना, शय्याविषयक मार्ग में विश्राम कराना, उपधिविषयक- उपधि को वहन करना। www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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