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________________ तीसरा उद्देशक है। बनेगा। इसका पोषण करना शकुनि के शावक की भांति कष्टप्रद इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण भिक्षु शुद्ध होता है, गणधारण के होता है। यह पुष्ट होकर भी मेरा होगा या नहीं, कौन जानता है। योग्य होता है। उसे सूत्रमंडली और अर्थमंडली का दायित्व दिया इसकी सारणा-वारणा करने वाले के सूत्रार्थ का महान् व्याघात जाता है। वह यदि दोनों मंडलियों में विषादग्रस्त नहीं होता, उसे होगा। (ऐसा सोचने वाला व्यक्ति गणधारण के लिए अयोग्य है।) मूल आचार्य गण का भार देते हैं। शिष्य प्रश्न करता है१४२४. पुट्ठो वासु मरिस्सति, दुराणुयुत्ते न वेत्थ पडिगारो। १४३०. चोदेति भाणिऊणं, उभयच्छन्नस्स दिज्जति गणो त्ति। सुत्तत्थपारिहाणी, थेरे बहुयं निरत्थं तु॥ सुत्ते य अणुण्णातं, भगवं! धरणं पडिच्छन्ने ।। यदि स्थविर सौंपा जाता है तो वह सोचता है-यह पुष्ट १४३१. अरिहाऽणरिहपरिच्छं, अत्थेणं जं पुणो परूवेध। किए जाने पर भी शीघ्र मर जाएगा। वृद्ध होने के कारण यह एवं होति विरोधो, - सुत्तत्थाणं दुवेण्हं पि।। दुरनुवर्त्य है। इससे कोई प्रतिकार-प्रत्युपकार नहीं होगा। मेरे पहले यह कहा गया था कि जो द्रव्य और भाव--दोनों सूत्र और अर्थ की हानि होगी। स्थविर को शिक्षा देना बहुत परिच्छदों से युक्त होता है उसे गण दिया जाता है। भगवन् ! जो निरर्थक होता है। (ऐसा सोचने वाला गणधारण के अयोग्य होता । द्रव्य और भाव-दोनों परिच्छदों से युक्त होता है उसी को गणधारण की अनुज्ञा सूत्र में दी गई है। आप अर्थ का आश्रय १४२५. अहियं पुच्छति ओगिण्हते बहुं किं गुणो मि रेगेणं। लेकर अर्ह और अनर्ह की परीक्षा की प्ररूपणा करते हैं। इस होहिति य विवद्धंतो, एसो हु ममं पडिसवत्ती।। प्रकार सूत्र और अर्थ-दोनों में विरोध आता है। तरुण को देने पर वह सोचता है-यह अधिक पूछता है और १४३२. संति हि आयरियबितिज्जगाणि अत्यधिक ग्रहण करता है। इससे मेरा क्या लाभ होगा? मेरे सत्थाणि चोदग! सुणेहि। सूत्रार्थ की विस्मृति होगी। निश्चित ही यह बढ़ता हुआ मेरा सुत्ताणुण्णातो वि हु, प्रतिद्वंद्वी ही होगा। होति कदाई अणरिहो तु॥ १४२६. कोधी व निरुवगारी, फरुसो सव्वस्स वामवट्टो य। १४३३. तेण परिच्छा कीरति, सुवण्णगस्सेव ताव निहसादी। ____ अविणीतो त्ति च काउं, हंतुं सत्तुं च निच्छुभती॥ ___ तत्थ इमो दिट्ठतो, रायकुमारेहि कायव्वो। खग्गूडको देने पर-यह क्रोधी है, निरुपकारी है, परुषभाषी शिष्य ! मेरी बात सुनो। आचार्य द्वितीयक शास्त्र हैं। सूत्र है, सभी के लिए प्रतिकूल आचरण करने वाला है, अविनीत ___में अनुज्ञात भी कोई कदाचित् अनर्ह होता है। इसलिए परीक्षा की है-यह सोचकर शत्रु की भांति उसको मारपीट कर निकाल देता जाती है। जैसे ताप, निकष आदि से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है। ऐसा व्यक्ति भी गणधारण करने में अनर्ह होता है। है, वैसे सूत्रानुज्ञात की भी परीक्षा की जाती है। वहां यह १४२७. वत्थाहारादीभि य, संगिण्हऽणुवत्तए य जो जुयलं। राजकुमारों का दृष्टांत देना चाहिए। गाहेति अपरितंतो, गाहण सिक्खावए तरुणं ।। १४३४. सूरे वीरे सत्तिय, ववसायि थिरे चियाग-धितिमंते। १४२८. खरमउएहिऽणुवत्तति, खग्गूडं जेण पडति पासेण। __बुद्धी विणीयकरणे, सीसे वि तथा परिच्छाए। देमो विहार विजढो, तत्थोड्डणमप्पणा कुणति॥ १४३५. निब्भयओरस्सबली, अविसायि पुणो करेति संठाणं। जो युगल को अर्थात् क्षुल्लक और स्थविर को वस्त्र, न विसम्मति देती, अणिस्सितो चउहाऽणुवत्ती य॥ आहार आदि से वश में कर अपने विचारों के अनुसार चलाता है जो शूर-निर्भय होता है, वीर-औरसबलयुक्त होता है, तथा तरुण मुनि को स्वयं अपरितप्त रहकर जो ग्राह्य है उसको सात्विक-अहंकारशून्य होता है, व्यवसायी-उद्यमशील होता है, ग्रहण करवाता है, तथा आसेवन शिक्षा से उसको शिक्षित करता। दुःख में भी विषादग्रस्त नहीं होता, कदाचित् व्यवसायविकल है। खग्गूड के प्रति जो परुष और मृदु वाक्यों से ऐसा अनुवर्तन होकर भी पुनःसंस्थान करता है-स्वोचित व्यवसाय करता है, करता है कि वह उसके पाश में बंध जाता है, जो 'विहारविजढ' है स्थिर-उद्यम करता हुआ विश्रांत नहीं होता, चियाग-दानरुचि अर्थात् विहार करना नहीं चाहता, 'इसको विहार कराऊंगा' यह होता है, देता है, धृतिमान्-दूसरों पर आश्रित नहीं होता, कहकर उसे स्वयं स्वीकार करता है। वह भिक्षु गणधारण के बुद्धिमान्-बुद्धिचतुष्टय से सहित होता है, विनय-विनयशील योग्य होता है। होता है, करण-राजा के कर्त्तव्य को करने में कुशल होता है, जो १४२९. इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अत्थमंडली चेव। बड़ों का अनुवर्तक होता है-इन गुणों से सहित राजकुमार का दोहिं पि असीदंते, देति गणं चोदए पुच्छा॥ राज्याभिषेक किया जाता है। १. वे आचार्य द्वितीयक शास्त्र हैं जो आचार्य परंपरा से प्राप्त संप्रदायविशेष से आकलित हैं। (वृत्ति) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org का गावात Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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