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सानुवाद व्यवहारभाष्य
१४१२. जध जध वावारयते, जधा य वावारिता न हीयंति।
तध तध गणपरिवुड्डी, निज्जरवुड्डी वि एमेव।।
जो भिक्षु जिस लब्धि से सम्पन्न है आचार्य उसको उसी में नियोजित करते हैं। जो उपकरणों की प्राप्ति में लब्धिमान है, जो सूत्रपाठ में अथवा अर्थग्रहण में लब्धिधारी है, जो वाद और धर्मकथा में प्रवीण है तथा जो ग्लान की सेवा में निपुण है-उनको तद्-तद् विषय में नियोजित करना जिससे कि उन-उन प्रवृत्तियों की हानि भी नहीं होती और गण की परिवृद्धि भी होती है और इसी प्रकार निर्जरा भी बढ़ती है। १४१३. दंसण-नाण-चरित्ते, तवे य विणए य होति भावम्मि।
संजोगे चउभंगो, बितिए नायं वइरभूती।। भावतः परिच्छद का लक्षण-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय से युक्त। द्रव्य और भाव परिच्छद के संयोग से चतुर्भंगी होती है। द्वितीयभंग का उदाहरण है-वज्रभूति का। १४१४. भरुयच्छे नहवाहण देवी पउमावती वइरभूती।
ओरोह कव्वगायण, कोउय निव पुच्छ देविगमो॥ १४१५. कत्थ त्ति निग्गतो सो, सयमासण एस चेव चेडिकधा।
विप्परिणाममदाणं, विरूवपरिवाररहिते य॥ भरुकच्छ में नभोवाहन राजा। देवी का नाम पद्मावती। वहां आचार्य वज्रभूति का आगमन। अंतःपुर में उनका काव्यगान हुआ। रानी के मन में आचार्य को देखने का कौतुक। राजा को पूछकर रानी आचार्य की वसति पर गई। रानी ने पूछा-आचार्य कहां है? प्रत्युत्तर मिला-बाहर गए हैं। स्वयं आसन लेकर आना। दासी ने कहा-यही आचार्य वज्रभूति है। रानी विपरिणत हो गई। साक्षात् उसने उपहार नहीं दिया। वे आचार्य विरूप और शिष्य परिवार से रहित थे। १४१६. मूलं खलु दव्यपलिच्छदस्स सुंदेरमोरसबलं च।
आकितिमतो हि नियमा,सेसा वि हवंति लद्धीओ। द्रव्य परिच्छद का मूल है सौंदर्य तथा औरसबल। जो आकृतिमान होता है नियमतः उसके शेष लब्धियां भी हो जाती
१४१८. अबहुस्सुतऽगीतत्थे दिटुंता सप्पसीसवेज्जसुते।
अत्थविहूण धरेते, मासा चत्तारी भारियया।। अबहुश्रुत और अगीतार्थ के संयोग से चतुर्भंगी होती है१. अबहुश्रुत अगीतार्थ। ३. बहुश्रुत अगीतार्थ
२. अबहुश्रुत गीतार्थ ४. बहुश्रुत गीतार्थ।
प्रथम तीन भंगवर्ती मुनि गण को धारण करता है तो उसके लिए दो दृष्टांत हैं-सर्पशीर्षक और वैद्यसुत। जो अर्थविहीन तथा सूत्रविहीन मुनि गण को धारण करता है, उसको चार भारिया अर्थात् चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १४१९. अबहुस्सुते अगीतत्थे, निसिरए वावि धारए व गणं।
तद्देवसियं तस्स उ, मासा चत्तारि भारियया॥
अबहुश्रुत अथवा अगीतार्थ भिक्षु को गण सौंपा जाता है अथवा वह स्वयं धारण करता है तो उसको तदैवसिक (उत्कृष्टतः सात रात-दिन के निमित्त से) चार भारिया मास-चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।। १४२०. सत्तरत्तं तवो होति, ततो छेदो पधावती।
छेदेणऽछिन्नपरियाए, ततो मूलं ततो दुगं॥ अन्य सात दिन-रात गण को सौंपे जाने पर अथवा धारण करने से तप, उसके बाद छेद, यदि पर्याय छिन्न नहीं होता है तो मूल फिर प्रायश्चित्त द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचित आता है। १४२१. जो सो चउत्थभंगो, दव्वे भावे य होति संच्छण्णो। . गपाधारणम्मि अरिहो, सो सुद्धो होति नायव्वो।।
जो चतुर्थभंगवर्ती भिक्षु है अर्थात जो द्रव्य और भाव से परिच्छद सहित है, वह गणधारण के लिए योग्य है। वह शुद्ध होता है। १४२२. सिद्धस्स य पारिच्छा, खुड्डय थेरे य तरुणखग्गूडे।
दोमादिमंडलीए, सुद्धमसुद्धे ततो पुच्छा।।
शुद्ध की परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा के विषय हैंक्षुल्लक, स्थविर, तरुण, खरगूड-स्वभाव से वक्राचारवाला, दो आदि मंडलियों-यदि इन परीक्षाओं में वह उत्तीर्ण हो जाता है तो शुद्ध है अन्यथा अशुद्ध है। फिर शिष्य पूछता है। आचार्य का प्रतिवचन है१४२३. उच्चफलो अह खुड्ये, सउणिच्छावो व पोसिउंदुक्खं।
पुट्ठो वि होहिति न वा, पलिमंथो सारमंतस्स॥ (परीक्षा के निमित्त पहले क्षुल्लक को सौंपते हुए आचार्य कहते हैं-इसको दोनों प्रकार की शिक्षाएं दो) वह सोचता है-यह क्षुल्लक उच्चफल अर्थात् चिरकाल के बाद फल देगा, उपकारी
हैं।
१४१७. जो सो उ पुव्वभणितो,
अपभू सो उ अविसेसितो तहियं। सो चेव विसेसिज्जति,
इहई सुत्ते य अत्थे य॥ जो पहले अप्रभु कहा है वह वहां भी अविशेषितरूप से ही कहा है। प्रस्तुत प्रसंग में जो सूत्र और अर्थ में प्रभु है, उसकी विशेषता कही है।
१. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य कथा परिशिष्ट।
२. इन दोनों दृष्टांतों को कल्पाध्ययन से जानना चाहिए। (वृ. पत्र)
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