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________________ पहला उद्देशक यह देखा जाता है कि जो योद्धा शत्रु की विशाल सेना को देखकर भयग्रस्त हो जाता है और लौट आता है, जो युद्ध में जाकर व्रणित होकर आता है और जो युद्ध कौशल से अव्रणित रहकर प्रतिनिवृत्त होता है-इन तीनों योद्धाओं के अपराध में नानात्व है। भंते! आपको मेरी बात रुचिकर क्यों नहीं लगती? ८२९. अक्खयदेहनियत्तं, बहुदुक्खभएण जं समाणेह। ___ एयं महं न रोयति, को ते विसेसो भवे एत्थ।। ८३०. एसेव व दिट्ठतो, पुररोधे जत्थ वारितं रण्णा। मा णीह तत्थ णिते, दूरासन्ने य नाणत्तं। आचार्य बोले-शिष्य ! जो योद्धा बहदुःख-मरण के भय से भयभीत होकर अक्षतदेह रणभूमि से लौट आया है, उसके साथ जो तुम तुलना करते हो, यह मुझे नहीं रुचता। शिष्य बोला-भंते ! इस विषय में आपका विशेष दृष्टांत क्या है? तब आचार्य ने कहा-वत्स! तुम्हारे द्वारा उपन्यस्त दृष्टांत शत्रुसेना द्वारा नगर को चारों ओर से घेर लेने पर कैसे लागू होगा? राजा ने यह घोषणा करवादी कि कोई नगर के बाहर न जाए। एक व्यक्ति नगर के बाहर गया और निकटता से ही लौट आया। दूसरा व्यक्ति नगर के बाहर दूर तक जाकर प्रतिनिवृत्त हुआ। इन दोनों के अपराध में नानात्व है, वैसे ही इस विषय में भी जानो। (क्योंकि संयती के निकट प्रदेश से लौट आने वाले का भावदोष अल्प होता है और संयती के दूर प्रदेश से आने वाले का भावदोष अधिक होता है। इसलिए दोनों के अपराध में तथा प्रायश्चित्त में नानात्व है।) ८३१. सेसम्मि चरित्तस्सा, आलोयणता पुणो पडिक्कमणं। छेदं परिहारं वा, जं आवण्णे तयं पावे।। ८३२. एवं सुभपरिणाम, पुणो वि गच्छम्मि तं पडिनियत्तं। जो हीलति खिंसति वा, पावति गुरुए चउम्मासे।। प्रतिमाप्रतिपन्न के चारित्रविराधना होने पर भी चारित्र का सर्वथा नाश नहीं होता, चारित्र शेष रहता है। वह पुनः आलोचना और प्रतिक्रमण करता है। उसे छेद अथवा परिहार प्रायश्चित्त जो दंडस्वरूप आता है वह उसे स्वीकार करता है। वह मुनि आलोचना आदि कर शुभपरिणामों से युक्त होकर गच्छ में लौट आता है और उसकी कोई हीलना, खिंसना करता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ८३३. उत्ता वितिण्णगमणा, इदाणिमविदिण्ण निग्गमे सत्ता। पडिसिद्धमवत्तस्स व, इमेसु सव्वेसु पडिसिद्धं ।। पहले सूत्रों में अभिशय्या आदि में वितीर्णगमन अर्थात् अनुज्ञातगमन की बात कही गई है। प्रस्तुत सूत्रों में अवितीर्णगमन अर्थात् अननुज्ञातगमन का प्रतिषेध किया गया है। पहले वाले सत्रों में अव्यक्त का निर्गमन प्रतिषिद्ध था। इनमें व्यक्त-अव्यक्त सभी का निगमन प्रतिषिद्ध है। ८३४. पासत्थ अहाछंदो, कुसील ओसन्नमेव संसत्तो। एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए॥ पार्श्वस्थ, यथाच्छंद, कुशील, अवसन्न तथा संसक्त-इनमें जो नानात्व है, वह मैं यथानुपूर्वी से कहूंगा। ८३५. गच्छम्मि केइ पुरिसा, सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा। सारण-पंजर-चइया, पासत्थगतादि विहरंति॥ जैसे पिंजरे में निरुद्ध पक्षी कष्ट पाता है, वैसे ही गच्छ में कई पुरुष (मुनि) सारणारूपी पिंजरे से निकलकर पार्श्वस्थ आदि के रूप में विहरण करते है। ८३६. तेसिं पायच्छित्तं, वोच्छं ओघे य पदविभागे य। ठप्पं तु पदविभागे, ओहेण इमं तु वोच्छामि।। पार्श्वस्थ आदि का सामान्यरूप से तथा पदविभाग-कालादि के आधार पर प्रायश्चित्त कहूंगा। पदविभाग के आधार पर जो प्रायश्चित्त आता है, वह अभी स्थाप्य है अर्थात् आगे कहूंगा। ओघ अर्थात् सामान्यरूप से प्रायश्चित्त का कथन करूंगा। ८३७. ऊसववज्ज कदाई, लहुओ लहुया अभिक्खगहणम्मि। ऊसवकदाइ लहुगा, गुरुगा य अभिक्खगहणम्मि। उत्सव के बिना यदि कभी शय्यातर पिंड आदि लिया हो तो एक लधुमास का और यदि बार-बार लिया हो तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उत्सव पर शय्यातर आदि पिंड लेने पर चार लघुमास और बार-बार लेने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। ८३८. चउ-छम्मासे वरिसे, कदाइ लहु गुरुग तह य छग्गुरुगा। एतेसु चेवऽभिक्खं, चउगुरु तह छग्गुरुच्छेदो॥ यदि चार मास में कभी शय्यातरपिंड लिया हो तो चार लघुमास, छह मास में कभी लिया हो तो चार गुरुमास, वर्षभर में कभी लिया हो तो छह गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इन्हीं चारमास, छहमास, वर्षभर में बार-बार लिया हो तो क्रमशः चार गुरुमास, छह गुरुमास तथा छेद का प्रायश्चित्त आता है। ८३९. एसो उ होति ओघे, एत्तो पदविभागतो पुणो वोच्छं। चउत्थमासे चरिमे ऊसववज्जं जदि कदाइ । ८४०. गेण्हति लहुओ लहुया, गुरुया इत्तो अभिक्खगहणम्मि। चउरो लहुया गुरुया, छग्गुरुया ऊसवविवज्जा। यह सारा ओघतः प्रायश्चित्त है। अब आगे पुनः पदविभाग से प्रायश्चित्त का कथन करूंगा। यदि उत्सववर्ज चार महीनों में कभी शय्यातरपिंड लेने पर एक लघुमास, छह महीनों में कदाचित लेने पर चार लघुमास तथा वर्ष में कदाचित् लेने पर चार गुरुमास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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