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आठवां उद्देशक
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तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा विराधना होती है।
और अपरान्ह। वसति से बाहर जाते समय उनको ऊपर टांग ३३९३. विक्खेवो सुत्तादिसु, आगंतु तदुब्मवाण घट्टादी। दिया जाता है।
पलिमंथो पुव्वुत्तो, मंथिज्जति संजमो जेण॥ ३३९८. अंगुट्ठपोरमेत्ता, जिणाण थेराण होति संडासो। संस्तारक की मार्गणा में सूत्र आदि का विक्षेप-व्याघात
भूमीय विरल्लेउ, अवणेत्तु पमज्जते भूमि॥ होता है। संस्तारक में आगंतुक प्राणी (कुंथु आदि) तथा तद् जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिकों के तृण अंगुष्ठपर्वमात्र उद्भव (मत्कुण आदि) का संघट्टन होता है। (तन्निमित्तक प्रायश्चित्त होते हैं। उनको भूमी पर बिछाने से वे यावत् संडास (तक होते आता है।) पलिमंथ के विषय में पहले कहा जा चुका है। जिससे हैं। भूमी का प्रमार्जन करते समय उनको उठाकर फिर भूमी का संयम मथित होता है वह है पलिमंथ।
प्रमार्जन किया जाता है। ३३९४. तम्हा उ न घेत्तव्वो, उडम्मि दुविधो वि एस संथारो। ३३९९. गेलण्ण उत्तिमढे, उस्सग्गेणं तु वत्थसंथारो।
__ एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो उ कारणिओ॥ उभयट्ठि उठ्ठिते तू, चंकमणे वेज्जकज्जे वा॥
इसलिए ऋतुबद्ध काल में दोनों प्रकार का यह संस्तार ग्लान और उत्तमार्थ अर्थात् अनशन को प्रतिपन्न-इन दोनों (परिशाटी और अपरिशाटी) ग्रहण नहीं करना चाहिए। शिष्य के लिए उत्सर्गरूप में वस्त्र का संस्तारक करना चाहिए। उसके तब कहता है-इस प्रकार कहने से तो सूत्र अफल-निरर्थक हो अभाव में अझुषिर तृण का संस्तारक मान्य है। यदि वे कठोर हों जाएगा। आचार्य कहते हैं-सूत्रनिपात कारणिक है अर्थात् कारणवश अथवा अझुषिर तृण प्राप्त न होते हों तो झुषिर तृण (शालि आदि उसका प्रवर्तन है।
का पलाल) का संस्तारक भी किया जा सकता है। ३३९५. सुत्तनिवातो तणेसु,
३४००. तद्दिवसं मलियाई, अपरिमित सई तुयट्ट जतणाए। देस गिलाणे य उत्तमढे य।
उभयट्टि उठ्ठिते तू, चंकमणे वेज्जकज्जे वा।। चिक्खल्ल-पाण-हरिते,
३४०१. अन्नो निसिज्जति तहिं, पाणदयट्ठाय तत्थ हत्थो वा। फलगाणि वि कारणज्जाते॥
निक्कारणमगिलाणे, दोसा ते चेव य विकप्पो।। सूत्रनिपात (सूत्र अवकाश) तृण, देश, ग्लान, उत्तमार्थ, तद्दिवस अर्थात् प्रतिदिन काम में लिए जाने पर वे तृण चिक्खल, प्राणी, हरित, फलक भी कारणजात में। (इसकी व्याख्या मलित हो जाते हैं, म्लान हो जाते हैं तब दूसरे अपरिमलित तृण आगे)
लाए जाते हैं। एक बार उनको प्रस्तारित कर यनतापूर्वक उन पर ३३९६. असिवादिकारणगता,
बैठा जाता है। उभयार्थ अर्थात् उच्चार, प्रस्रवण के लिए उठने पर उवधी कुत्थण अजीरगभया वा। तथा चंक्रमण के लिए अथवा वैद्य के प्रयोजन से उठने पर अन्य अझुसिरमसंधिऽबीए,
उस तृण-संस्तारक पर प्राणियों की दया के लिए बैठ जाता है एक्कमुहे भंगसोलसगं॥ अथवा उस पर अपना हाथ रखे रहता है। निष्कारण अग्लान के अशिवादि कारण से साधु ऐसे प्रदेश में गए जहां भूमी पर लिए तृणमय संस्तारक ग्रहण से पूर्वोक्त दोष तथा उपधि रखने से वह कुथित हो जाती है, उसके भय से अथवा विकल्पदोष-कल्प तथा प्रकल्प में सूचित दोष भी प्राप्त होते हैं अजीर्ण आदि रोग के भय से तृण लेते हैं। वे तृण अझुषिर हों, ३४०२. अत्थरणवज्जितो तू, कप्पो उ होति पट्टदुगं ति। असंधी वाले हों तथा अबीजयुक्त हों, तथा एकमुख वाले हों। इन
तिप्पभियं तु विकप्पो, अकारणेणं तणाभोगो।। चार पदों (अझुषिर, असंधि, अबीज और एकमुख) के सोलह आस्तरणवर्जित कल्प, पट्टद्विक (संस्तारक तथा उत्तरपट्ट) भंग-विकल्प होते हैं।
प्रकल्प तथा तीन आदि संस्तारक विकल्प कहलाता है। जो ३३९७. कुसमादि अझुसिराई,असंधि बीयाइ एक्कतो मुहाई। अकारण तृणों का उपभोग होता है, वह भी विकल्प है।
देसी पोरपमाणा, पडिलेहा तिन्नि वेहासं॥ ३४०३. अधवा अझुसिरगहणे,कप्पपकप्पो समावडिय कज्जे। कुश आदि तृण अझुषिर, असंधि और अबीज होते हैं। वे
झुसिरे व अझुसिरे वा, होति विकप्पो अकज्जम्मि।। एकमुख वाले होते हैं। देशी अर्थात् अंगुष्ठ के पर्व प्रमाणवाले तृण अथवा कारण में (जिनकल्पी और स्थविरकल्पी को) होते हैं। उनकी प्रत्युपेक्षा तीन बार करनी होती है-प्रभात, मध्यान्ह अझुषिर तृण लेना कल्प है, प्रयोजनवश (स्थविरकल्पी को) १. अंगुष्ठ के पर्व पर तर्जनी (प्रदेशिनी) अंगुली का अग्रभाग रखने पर जो चरणों का अर्थ है-जिनकल्पिक के लिए तृण का परिमाण है अंगुष्ठआकार बनता है वह संडास है।
पर्वमात्र और स्थविरकल्पिक के लिए है संडासप्रमाणमात्र। २. निशीथ भाष्य १२२७ में यही गाथा है। चूर्णिकार के अनुसार प्रथम दो
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