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चौथा उद्देशक
२०३ कायोत्सर्ग करते हैं। यदि प्रतिदिन विकृति ही प्राप्त होती है तो वे योगवाही निष्कारण विकृति का उपभोग नहीं कर सकते। योग का निक्षेप कर देते हैं।
कारण में गुरु द्वारा अनुज्ञात होने पर विकृति का उपभोग करना २१३७. आयंबिलस्सऽलंभे, चउत्थमेगंगियं च तक्कादी। कल्पता है।
___ असतेतरमागाढे, निक्खिवणुद्देस तह चेव॥ २१४३. विगतीकए ण जोगं, निक्खिवए अदढे बले। जिस दिन आचाम्ल करना हो और उस दिन यदि उसके
स भावतो अनिक्खित्ते, निक्खित्ते वि य तम्मि उ॥ प्रायोग्य आहार न मिले तो उपवास करे। यदि उपवास न कर जो संहनन से दृढ़ होने पर भी शरीर से दुर्बल होता है वह सके तो तक्र लेकर आचाम्ल करे। उसके साथ अनागाढ़- योग का निक्षेप करता है, विकृति के लिए नहीं। उसका योगयोगवाही हो तो इतर अर्थात् आगाढ़योगवाही दे। उनके प्रायोग्य निक्षेपण भी भावतः अनिक्षेपण ही है। आहार न मिले तो योग का निक्षेप कर दे। निक्षेप करने के पश्चात् २१४४. विगतिकते ण जोगं निक्खिवे दढ-दुब्बले। श्रुत का उद्देश पूर्ववत् हो सकता है।
से भावतो अनिक्खित्ते, उववातेण गुरूण उ॥ २१३८.जदि निक्खिप्पति दिवसे, भूमीए तत्तिए उवरि वड्डे। जो शरीर से बलवान होने पर भी संहनन से अदृढ़ है वह
__ अपरिमितं तुद्देसो, भूमीए उवरितो कमसो॥ योग का निक्षेप करता है, विकृति के लिए नहीं। उसके द्वारा योग
जितने दिनों के लिए योग का निक्षेप किया था, उतने दिन का निक्षेपण करने पर भी वह योग भावतः अनिक्षिप्त ही है क्योंकि स्वाध्यायभूमी में बढ़ादे। यदि उद्देशक अपरिमित हो तो वह निक्षेपण गुरु-आज्ञा से किया गया है। " स्वाध्याय में उसका अतिवाहन करे। उसके बाद क्रमशः सूत्रपाठ २१४५. सालंबो विगतिं जो उ, आपुच्छित्ताण सेवए। के अनुसार वहन करे।
स जोगे देसभंगो उ, सव्वभंगो विवज्जए। २१३९. सक्कमहादीएसु व, पमत्त मा तं सुरा छले ठवणा। जो सावलंब होकर, गुरु को पूछकर विकृति का सेवन
पीणिज्जंतु व अदढा, इतरे उ वहंति न पढंति ।। करता है, वह योग का देशभंग है। योग का सर्वभंग विपर्यय करने
शक्रोत्सव आदि में अनागादयोगवाही योग का निक्षेप कर पर होता है अर्थात् बिना आलंबन और गुरु को पूछे बिना विकृति देते हैं। इसका कारण है कि उस समय प्रमत्त हुए मुनि को देवता का सेवन करने पर होता है। छल न लें। दूसरी बात है कि जो अदृढ़ हैं वे उन दिनों अपने २१४६. जह कारणे असुद्धं, भुजंतो न उ असंजतो होति। आपको विकृति के भोग से तृप्त कर लें, इसलिए योग का निक्षेपण तह कारणम्मि जोगं, न खलु अजोगी ठवेंतो उ॥ किया जाता है। जो आगाढ़योगवाही हैं वे योग का वहन करते हैं। जैसे कारण में अशुद्ध आहार करने पर भी असंयत नहीं वे न उद्देश देते हैं और न पढ़ते हैं।
होता, वैसे ही कारण में योग का स्थगन करने पर भी वह अयोगी २१४०. अद्धाणम्मि जोगीणं, एसियं सेसगाण पणगादी। नहीं होता।
__ असतीय अणागाढे, निक्खिव सव्वाऽसती इतरे ॥ २१४७. अण्णो इमो पगारो, पडिच्छयस्स उ अहिज्जमाणस्स।
मार्ग में जाते हुए जो एषित-प्रासुक आहार प्राप्त हो वह ___ माया-नियडीजुत्तो, वेवहार सचित्तमादिम्मि॥ योगवाहियों को दे और शेष मुनियों को 'पंचक की परिहानि' से अध्येता प्रतीच्छक के लिए यह अन्य प्रकार भी है। सचित्त आहार दे। यदि योगवाहियों के लिए वह प्रासुक आहार पर्यास न आदि के विषय में माया और विकृतियुक्त व्यवहार करता है, हो तो अनागाढयोगवाही योग का निक्षेप कर दे। यदि प्रासुक जैसेआहार सर्वथा न मिले तो इतर-आगाढ़योगी योग का निक्षेप कर २१४८. उप्पण्णे उप्पण्णे, सच्चिते जो उ निक्खिवे जोगं।
सव्वेसिं गुरुकुलाणं उवसंपद लोविता तेण॥ २१४१. आगाढम्मि उ जोगे,विगतीओ नवविवज्जणीया उ। जो सचित्त का लाभ होने पर योग का निक्षेप करता है, वह
दसमाय होति भयणा, सेसग भयणा वि इतरम्मि॥ सभी गुरुकुलों के श्रुतोपसंपद् का लोप करता है।
आगाढ़ योग में सभी नौ विकृतियां वर्जनीय हैं। दसवीं २१४९. बहिया य अणापुच्छा, विहीय आपुच्छणाय मायाए। विकृति की भजना है-विकल्प है। अनागाढ़योग में शेष विकृतियों । गुरुवयणे पच्छकडो, अब्भुवगम तस्स इच्छाए।। की भी भजना है-वे वैकल्पिक हैं।
बहिर्, अनापृच्छा, विधि (ज्ञातविधि), पृच्छा माया से, २१४२. निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ जोगवाहिणो। गुरुवचन से पराजित, अभ्युपगम, उसकी इच्छा से। (व्याख्या
कप्पंति कारणे भोत्तुं, अणुण्णाया गुरूहि उ॥ अगली गाथाओं में।) १. ये एकार्थक हैं-उपपात, निद्देश, आज्ञा, विनय। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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दे।