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२१५०. अछिन्नमाणे उ सचित्तं, उप्पण्णं तु जया भवे जोगो । निक्खिप्पंतं भंते !, कज्जं मे किंचि बेती तु ॥ अध्येता शिष्य के जब-जब सचित्त आदि का लाभ होता है तब-तब वह आचार्य के पास जाकर कहता है-भंते! मेरा किंचित् प्रयोजन है मेरे योग का आप निक्षेपण कराएं।
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२१५१. बहिया व अणापुच्छा, उब्भामे लभिय सहमादी तु । नेति सय पेसवेति व आसन्नविताण तु गुरूणं ॥ बहिर उभ्रामक मिक्षा में शैक्ष आदि का लाभ होने पर अपने अध्ययन कराने वाले को पूछे बिना शैक्ष को निकट प्रदेश में स्थित अपने गुरु के पास स्वयं ले जाता है अथवा दूसरों के साथ वहां भेजता है
२१५२. अहवुप्पण्णे सच्चित्तादी मा में य एतच्छिन्ती ।
मायाए आपुच्छति, नायविधिं गंतुमिच्छामि ॥ अथवा सचित्त आदि का लाभ होने पर वह सोचता है-मेरा यह लाभ गुरु न ले लें, ऐसा सोचकर वह मायापूर्वक गुरु से पूछता है-भंते! में ज्ञातविधि स्वजनवर्ग को उपासना कराने जाता हूं।
२१५३. पव्वावेउं तहियं नालमणाले य पत्थवे गुरुणो । आगंतुं च निवेदति, लद्धा मे नालबन्द त्ति ॥ वहां जाकर वह नालबद्ध अथवा अनालबद्ध व्यक्तियों को प्रव्रजित कर गुरु के पास भेज देता है, फिर अपने अध्यापयिता के पास आकर निवेदन करता है कि मैंने नालबद्धों को प्रवजित कर गुरु के पास भेज दिया है।
२१५४. ण्हाणादिसु इहरा वा, दहुं पुच्छा कया सि पव्वविता ।
अमुपण अमुगकालं, इह पेसवियाणिता वावि ॥ जिनेश्वरस्नान आदि के समवसरण पर अथवा अन्यत्र मिले हुए उन नये नये मुनियों को देखकर आचार्य पूछते हैं-तुम कब कहां प्रब्रजित हुए हो ? वे कहते हैं-अमुक आचार्य ने, अमुक काल में हमें प्रव्रजित किया है। वे स्वयं हमें यहां लेकर आए हैं अथवा अमुक व्यक्ति के साथ हमें यहां भेजा है।
२१५५. सो तुपसंगऽणवत्था, निवारणट्ठाय मा हु अण्णो वि।
काहिति एवं होउं, गुरुयं आरोवणं देति ॥ आचार्य ने यह सुना और सोचा कि दूसरा भी ऐसा न करे अतः इस प्रसंग के अनवस्था को रोकने के लिए वे गुरुकआरोपणा - गुरुमास आदि का प्रायश्चित्त देते हैं।
१. नालबद्ध - इसका अर्थ है वल्लीबद्ध । वल्ली दो प्रकार की होती है-अनंतरा और सांतरा । अनंतरा वल्ली में ये छह व्यक्ति समाविष्ट होते हैं-माता, पिता, भ्राता भगिनी, पुत्र और पुत्री। सांतरा वल्ली यह है - माता की माता, माता का पिता भ्राता और भगिनी अथवा
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२१५६. अन्वगतस्स सम्म,
सानुवाद व्यवहारभाष्य
तस्स उ पणिवइय वच्छला कोवि । वितरति तच्चिय सेहे,
एमेव य वत्थपत्तावी ॥
जो अपनी भूल को सम्यग्ररूप से स्वीकार कर लेता है, कोई प्रणिपातवत्सल आचार्य उन शैक्ष मुनियों को उसको सौंप देते हैं। इसी प्रकार प्राप्त वस्त्र - प्रात्र आदि भी उसको सौंप देते हैं। २१५७ एवं तु अहिज्जेते, ववहारो अभिहितो समासेण ।
अभिधारेंते इणमो, ववहारविधिं पवक्खामि ॥ इस प्रकार अध्येता का व्यवहार संक्षेप में कहा गया है। अभिधारक की जो व्यवहारविधि है, उसको मैं कहूंगा। २१५८. जं होति नालबद्धं धाडियणाती व जो व तल्लाभं । भोएहिति विमग्गंतो छब्बिह सेसेस आयरिओ ॥ जो नालबद्ध और धाडितनाती (नालबद्ध व्यक्तियों से दीक्षित) का लाभ हुआ है, वे चिह्न की मार्गणा करते हुए अभिधारक के पास जाते हैं। वे छह (माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, दुहिता) अभिधारक के आभाव्य होते हैं और शेष श्रुतगुरुआचार्य के आभाव्य होते हैं।
२१५९. उयसंपज्जते जत्थ तत्य पुट्टो भणाति तू । वयचिंधेहि संगारं, वण्ण सीते यऽणंतगं ॥ जहां उपसंपन्न किया जाता है, वहां पूछा जाता है तुम यहां क्यों आए हो ? वह कहता है-आपके पास जो दीक्षित उनको मैंने संकेत किया था कि मैं शीतकाल में उपसंपदा ग्रहण करूंगा। उनका यह वय है, शरीर का वर्ण यह है, शीतकाल प्रायोग्य वस्त्र ऐसा था ये चिह्न संकेत के प्रमाण हैं। २१६०. नालबद्धा उ लब्भंते, जया तमभिधारए।
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जे यावि चिंधकालेहिं, संवतंति उवट्ठिता ॥ जब उस उपसंपद्यमान का अभिधारण किया जाता है तब पूर्व उपस्थापित नालबद्ध प्रव्रजित मुनि उसे प्राप्त होते हैं। जो चिह्न और काल से संवादित हैं वे भी उसे प्राप्त होते हैं। २१६१. अण्णकाले वि आयाता, कारणेण उ केण वि ।
ते वि तस्साभवंती उ विवरीयायरियस्स उ ॥ जो किसी कारण से अन्यकाल में आए हैं, वे भी उसी के होते हैं। इससे विपरीत अर्थात् कारण के बिना आने पर वे आचार्य के होते हैं।
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दादा, दादी, दादा का भाई और भगिनी । अथवा भाई का पुत्र और पुत्री । अथवा बहिन का पुत्र और पुत्री अथवा पुत्र का पुत्र और पुत्री। अथवा पुत्री का पुत्र और पुत्री ।
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