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________________ २०२ सानुवाद व्यवहारभाष्य और काल से विशिष्ट होने पर गुरुमास का विधान है। ये २१३२. जत्तियमेत्ते दिवसे, विगति सेवति न उद्दिसे तेसु। अनागाढ़ योग के देशभंग के चार प्रकार हैं तह वि य अठायमाणे, निक्खिवणं सव्वहा जोगो॥ २१२८. एक्केक्के आणादी, विराधणा होति संजमायाए। जितने दिनों तक वह विकृति का सेवन करता है, उतने अहवा कज्जे उ इमे, दहूं जोगं विसज्जेज्जा॥ दिनों तक सूत्र का उद्देशन नहीं दिया जाता। फिर भी यदि ग्लानत्व उपरोक्त प्रत्येक प्रकार में आज्ञा आदि की विराधना होती है दूर नहीं होता है तो योग का सर्वथा निक्षेपण कर देना चाहिए। तथा स्वयं के संयम की भी विराधना होती है। अथवा इन २१३३. जदि निक्खिप्पति दिवसे, भूमीए तत्तिए उवरि वड्ढे। वक्ष्यमाण कार्यों को देखकर योग का विसर्जन करे। (इनमें देशतः ___ अपरिमितं तुद्देसो, भूमीए उवरितो कमसो॥ सर्वतः भंग नहीं होता।) जितने दिनों के लिए योग का निक्षेप किया था उतने दिन २१२९. दट्ठ विसज्जण जोगे, गेलण्णं वय महामहद्धाणे। भूमी (स्वाध्याय) में बढ़ादे। यदि उद्देशक अपरिमित हो तो ___ आगाढ नवगवज्जण, निक्कारण कारणे विगती॥ स्वाध्याय में उसका अतिवाहन करे। उसके बाद क्रमशः सूत्रपाठ ग्लान को देखकर वजिका, महामह, अध्वा-इनके लिए के अनुसार वहन करे। योग का विसर्जन करे। आगाढ़ योग में नौ विकृतियों का वर्जन, २१३४. गेलण्णमणागाढे, रसवति नेहोव्वरे असति पक्का। निष्कारण, कारण, विकृति। (यह नियुक्ति गाथा है। इसकी तह वि य अठायमाणे, आगाढतरं तु निक्खिवणा।। व्याख्या अगली गाथाओं में।) अनागाढ़ ग्लानत्व में रसवती में शालनकादि में जो घी २१३०. जोगे गेलण्णम्मि य, आगाढियरे य होति चउभंगो। बचता है उससे म्रक्षण करना चाहिए। फिर भी यदि ग्लानत्व नहीं पढमो उभयागाढो, बितिओ ततिओ य एक्केणं॥ मिटता है तो शतपाक आदि, पक्क घृत-तैल आदि म्रक्षण के लिए योग और ग्लानत्व-प्रत्येक के आगाढ़ और अनागाढ की दिए जाते हैं। उनसे भी ग्लानत्व नहीं मिटता है तो ग्लानत्व को अपेक्षा से चतुर्भगी इस प्रकार है आगाढ़ मानकर योग का सर्वथा निक्षेप कर देना चाहिए। यह १. आगाढ़योग और आगाढ़ग्लानत्व। द्वितीय भंग है। २. आगाढयोग और अनागाढ़ग्लानत्व। २१३५. तिण्णि तिगेगंतिरते, गेलण्णागाढ निक्खिव परेणं। ३. अनागाढ़योग और आगाढ़ग्लानत्व। तिण्णि तिगा अंतरित चउत्थभंगे व निक्खिवणा।। ४. अनागाढ़योग और अनागादग्लानत्व। अनागादयोग और आगाढ़ ग्लानत्व में तीन दिनों के तीन पहला भंग उभय आगाढ है। दूसरे तीसरे भंग में एक-एक त्रिकों को एकान्तरित करे और इनसे भी यदि ग्लानत्व उपशांत न आगाढ़ है। हो तो फिर योग का निक्षेप कर दे। यह तीसरा भंग है। इसी प्रकार २१३१. उभयम्मि वि आगाढे, दड्डे पक्कुद्धरेहि तिण्णि दिणे। चौथे भंग में भी तीन दिनों के तीन त्रिकों को एकांतरित करे। यदि मक्खेंति अठायंते, पज्जंत धरे दिणे तिन्नि॥ ग्लानत्व शांत न हो तो योग का निक्षेप कर दे।२।। दोनों अर्थात् योग और ग्लानत्व आगाढ़ होने पर, आगाढ़ २१३६. वइया अजोगि जोगी, व अदढ अतरंतगस्स दिज्जंते। योग वहन करने वाला आगाढ़ ग्लान को तीन दिन तक जले हुए निविगितियमाहारो, अंतरविगतीय निक्खिवणं ।। अर्थात् पक्वान्नोद्धरित तैल या घृत से मालिश करता है। यदि यदि ग्लान अदृढ़ है, जिका-गोकुल में जाने में असमर्थ है इससे ग्लानत्व दूर नहीं होता है तो जहां पक्वान्न पकाया जाता है तो उसे अयोगवाही अथवा अनागाढ़ योगवाही साथ में दिया वहां पर्यंत भाग में ग्लान को तीन दिन तक बिठाया जाता है। वहां जाता है। वहां वे निर्विकृतिक आहार करते हैं। यदि प्रतिदिन वह पुद्गलों की गंध से स्वस्थता हो सकती है। प्राप्त नहीं होता है तो अंतरित विकृति ग्रहण करने के लिए १. प्रथम प्रकार में प्रायश्चित्त है-तपस्या से मासलघु अर्थात अष्टम आदि पांचवे, छठे और सातवें दिन विकृतिग्रहण, आठवें दिन निर्विकृति, और काल से गुरु अर्थात् ग्रीष्मकाल में। नौवें दिन विकृति। यदि रोग शांत न हो तो दसवें दिन योग का दूसरे प्रकार में मासलघु तपस्या से गुरु तथा काल से लघु । निक्षेपण। तीसरे प्रकार में तपस्य से मासलघु अर्थात् चतुर्थ आदि तथा चौथे भंग में पहले दिन विकृतिग्रहण, दूसरे दिन निर्विकृति, काल से गुरु अर्थात् वसंत आदि में। तीसरे दिन विकृति, चौथे दिन निर्विकृति। इस प्रकार एकांतरित चौथे प्रकार में तपस्या तथा काल में लघु। विकृति-निर्विकृति कराए। रोग शांत न हो तो दसवें दिन योग का नोटः आगाढ़ योग में अपूर्ण में विसर्जन की अनुज्ञा नहीं होती। निक्षेप कर दें। (वृत्ति) २. तीसरे मंग में प्रथम तीन दिन विकृतिग्रहण, चौथे दिन निर्विकृति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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