SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा उद्देशक २०१ २११७. सज्झायभूमि वोलते, जाए छम्मास पाहुडे। २१२३. तीरित अकते उगते, जावन्नं न पढते उ ता पुरिमा। सज्झायभूमि दुविधा, आगाढा चेवऽणागाढा॥ आसन्नाउ नियत्तति, दूरगती वावि अप्पाहे। स्वाध्याय भूमी का अर्थ है-प्राभूत-इष्ट श्रुतस्कंध का आगाढ योग के पूर्ण होने पर, बिना कायोत्सर्ग किए योग। आगाढ़ योग उत्सर्गतः छह मास का होता है। स्वाध्याय- निर्गमन करता है तथा वहां जाकर जब तक अन्य श्रुत नहीं पढ़ता भूमी के दो प्रकार हैं-आगाढ़ तथा अनागाढ़। अथवा योग के दो। तब तक जो कुछ प्राप्त करता है वह पूर्वाचार्य का होता है। निर्गमन प्रकार हैं-आगाढ़ तथा अनागाढ़। कर चले जाने पर यदि आसन्न प्रदेश में जाने पर कायोत्सर्ग न २११८. जहण्णेण तिण्णि दिवसा, करने की स्मृति आती है तो वह निवर्तन कर दे। यदि दूर जाने पर णागादुक्कोस होति बारस त। स्मृति हो तो साधर्मिकों के पास जाकर कायोत्सर्ग कर आचार्य के एसा दिट्ठीवाए, पास संदेश भेज दे कि मैंने अमुक के पास कायोत्सर्ग कर लिया महकप्पसुतम्मि बारसगं॥ अनागाढ़ स्वाध्यायभूमी का जघन्य काल तीन दिन का २१२४. अतोसविते पाहुडे, णिते छेदा पडिच्छ चउगुरुगा। (नंदी आदि के अध्ययन में) और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का होता जो वि य तस्स उलाभो, तं पि य न लभे पडिच्छंतो॥ है। यह उत्कृष्टकाल दृष्टिवाद के महाकल्पश्रुत की अपेक्षा से है। प्राभृत-श्रुतस्कंध के पूर्ण होने पर आचार्य को भक्ति२११९. सकंतो य वहंतो, काउस्सग्गं तु छिन्नउवसंपा। ___ बहुमानपूर्वक संतुष्ट किए बिना यदि कोई निर्गमन करता है तो अकयम्मी उस्सग्गो, जा पढती तं सुतक्खंधं॥ उसे प्रायश्चित्त स्वरूप 'छेद' आता है। जो उसको पढ़ाता है २१२०. ता लाभो उद्दिसणायरियस्स जदि वहति वट्टमाणिं से। उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। निर्गत मुनि को जो __ अवहंतम्मि उ लहुगा, एस विधी होइऽणागाढे॥ कुछ सचित्त आदि का लाभ होता है, वह पूर्वतन आचार्य का होता है न स्वयं का होता है और न प्रतीच्छक का अर्थात् पढ़ाने वाले योग का वहन करता हुआ,गणांतर में संक्रमण करते समय का होता है। उपसंपदा छिन्न हो गई है, ऐसा मानकर कायोत्सर्ग करके वजन २१२५. तत्थ वि या अच्छमाणे, गुरुलहया सव्वभंग जोगस्स। करे। यदि वह बिना कायोत्सर्ग किए जाता है और वह वहां जब आगाढमणागाढे, देसे भंगे उ गुरु-लहुओ। तक उस श्रुतस्कंध को पढ़ता है, उस काल में जो कुछ सचित्त वहां गच्छ में रहता हुआ यदि आगाढ योग का सर्वतः भंग आदि का लाभ होता है वह उद्देशनाचार्य का होता है, यदि वह करता है तो चार गुरुमास का, अनागाढ योग का सर्वतः भंग अन्यत्र जाने वाले शिष्य का वर्तमान में संरक्षण वहन करता है। करने पर चार गुरुमास का अथवा चार लघुमास का तथा आगाढ़ यदि वह वहन नहीं करता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त योग का देशतः भंग करने पर एक गुरुमास का तथा अनागाढ़ आता है। यह विधि अनागाढ़ योग की है। योग का देशतः भंग करने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता २१२१. आगाढो वि जहन्नो, कप्पिगकप्पादि तिण्णऽहोरत्ता। उक्कोसो छम्मासो, वियाहपण्णत्तिमागाढे ।। २१२६. आयंबिलं न कुव्वति, भुजति विगती उ सव्वभंगो उ। आगाढ़ योग भी जघन्यतः तीन अहोरात्र का होता है चत्तारि पगारा पुण, होति इमे देसभंगम्मि। कल्पिका-कल्पिका आदि का, उत्कृष्टतः छह मास का होता है २१२७. न करेति भुंजिऊणं, करेति काउं सयं च भुंजति उ। व्याख्याप्रज्ञप्ति का। वीसज्जेह ममंतिय, गुरु-लहुमासो विसिट्ठो उ॥ २१२२. तत्थ वि काउस्सग्गं,आयरियविसज्जितम्मि छिन्ना तु। जो प्राप्त आचाम्ल नहीं करता, विकृति खाता है, यह योग संसरमसंसरं वा, अकाउस्सगं तु भूमीए॥ का सर्वभंग है। देशतः भंग के ये चार प्रकार हैंआगाढ योग में भी आचार्य द्वारा विसर्जित किए जाने पर १. कायोत्सर्ग किए बिना विकृति का भोग करता है। उपसंपदा छिन्न हो जाती है। इसकी स्मृति कर निर्गमन करने २. विकृति का भोगकर कायोत्सर्ग करता है। वाला मुनि कायोत्सर्ग करे। स्मृति न रहने पर आचार्य उसको ३. स्वयं कायोत्सर्ग कर विकृति का भोग करता है। स्मृत कराए। यदि कायोत्सर्ग किए बिना निर्गमन करता है तो ४. गुरु से पूछता है-आप मुझे संदिष्ट करें कि मैं विकृति उस भूमी-आगाढ़ योग में जो कुछ प्राप्त करता है वह का भोग करूं। उद्देशनाचार्य का होता है। इन सबमें लधुमास का प्रायश्चित्त है तथा यथायोग तप १. यह अल्पप्रज्ञ व्यक्तियों की अपेक्षा से कहा गया है। प्राज्ञ व्यक्तियों के लिए तो इसका कालमान एक वर्ष का ही है। Jain Education International www.jainelibrary.org है। For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy