SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० २१०४. पारिच्छनिमित्तं वा, सब्भावेणं च बेति तु पडिच्छे । उवसंपज्जितुकामे, मज्झं तु अकारगं इहई ॥ २१०५. अण्णं गविसह खेत्तं, पाउग्गं जं च होति सव्वेसिं । बालगिलाणादीणं, सुहसंधरणं महाणस्स ॥ जो प्रतीच्छक उपसंपदा के लिए उपस्थित हुए हैं, उनकी परीक्षा करने अथवा सद्भाव के निमित्त से गुरु उनको कहता है - आर्य ! इस क्षेत्र में प्राप्त भक्तपान आदि मेरे लिए अकारक हैं- प्रायोग्य नहीं है। इसलिए दूसरे क्षेत्र की गवेषणा करो जहां सभी अर्थात् बाल, ग्लान आदि मुनियों के लिए तथा इस महान् गण में सुखपूर्वक निस्तार के लिए उपयुक्त हो । २१०६. कतसज्झाया एते, पुव्वं गहितं पि नासते अम्हं । खेत्तस्स अपडिलेहा, अकारका तो विसज्जेति ॥ इस आदेश को सुनकर यदि वे यह कहें- आपके ये शिष्य स्वाध्याय कर चुके हैं, इनको भेजें। यदि हम जाएंगे तो हमने जो पहले ग्रहण किया है, वह भी विनष्ट हो जाएगा। इस प्रकार उन क्षेत्र के अप्रत्युपेक्षकों, विनय आदि के अकारकों को विसर्जित कर देना चाहिए। २१०७. सव्वं करिस्सामु ससत्तिजुत्तं, इच्चेवमिच्छंत पडिच्छिऊणं । निद्देसबुद्धीय न यावि भुंजे, तं वाऽगिला पूरयते सि इच्छं ॥ गुरु के आदेश को सुनकर जो यह कहे - ' अपनी अपनी शक्ति के अनुसार हम सब करेंगे' उनको प्रतीच्छक के रूप में रखें। उनका उपभोग निर्देश की बुद्धि से न करे, किंतु वे जिस इच्छा से उपसंपन्न होना चाहते हैं उनकी उस इच्छा को अगिला - निर्जरा बुद्धि से पूरी करे। २१०८. निट्ठितमहल्लभिक्खे, कारण उवसग्गऽगारिपडिबंधो। पढमचरिमाइ मोत्तुं, निग्गम सेसेसु ववहारो ॥ निष्ठित, महती, भिक्षा, कारण, उपसर्ग, आगारी का प्रतिबंध, इनमें प्रथम और चरम कारण को छोड़कर शेष कारणों से निर्गमन करने पर होने वाले आभवत् व्यवहार के विषय में कहूंगा। ( इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में ।) २१०९. सम्मत्तम्मि सुते तम्मि, निग्गमो तस्स होति इच्छाए । मंडल महल्लभिक्खे, जह अन्ने सो वि जावए । श्रुत का प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उसका निर्गम अपनी इच्छा से होता है । महती भक्तमंडली में तथा दुर्लभ भिक्षा की स्थिति में जैसे दूसरे मुनि जीवन यापन करते हैं, उसी प्रकार से उसको करना चाहिए। (इस यापना को सहन न करने पर निर्गमन होता है तथा सूत्रमंडली में चिरकाल से प्राप्त होने वाले आलापक को सहन न करने से निर्गमन होता है ।) Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य २११०. कारणे असिवादिम्मि, सव्वेसिं होति निग्गमो । दंसमादि उवसग्गे, सव्वेसिं एवमेव तू ॥ अशिव आदि कारणों से सभी का निर्गमन होता है। इसी प्रकार दंश-मशक के उपसर्ग में भी सभी का निर्गमन होता है । २१११. नीयल्लएहि उवसग्गो, जदि गच्छंत नेतरे । निग्गच्छति ततो एगो, पडिबंधो वावि भावतो ।। अपने स्वजनों द्वारा उपसर्ग उपस्थित करने पर गण के अन्य साधु निर्गमन नहीं करते, किंतु वह एकाकी प्रातीच्छिक निर्गमन कर देता है। यदि भावतः अपने स्वजनों के प्रति गहरा प्रतिबंध होता है तो निर्गमन कर देता है। २११२. आतपरोभयदोसेहि, जत्थऽगारीय होज्ज पडिबंधो। तत्थ न संचिट्ठेज्जा, नियमेण तु निग्गमो तत्थ ॥ यदि अगारी - स्त्री का स्व पर तथा उभय दोषात्मक प्रतिबंध हो तो मुनि वहां न रहे। नियमतः वहां से वह निर्गमन कर दे। २११३. पढमचरिमेसऽणुण्णा, निग्गम सेसेसु होति ववहारो । पढमचरिमाण निग्गम, इमा उ जयणा तहिं होति ॥ उपरोक्त कथित (८वीं गाथा) कारणों में प्रथम और चरम कारण में निर्गमन की अनुज्ञा है । शेष कारणों में निर्गमन करने पर आभवद् व्यवहार होता है तथा प्रथम और चरम कारण में निर्गमन करने पर यह वक्ष्यमाण यतना होती है । २११४. सरमाणे उभए वी, काउस्सग्गं तु काउ वच्चेज्जा । पहुट्ठे दोण्ह वि ऊ, आसन्नातो नियट्टेज्जा ॥ प्रथम और चरम कारण में दोनों आचार्य और प्रातीच्छक को विधि की स्मृति होने पर प्रातीच्छक कायोत्सर्ग कर निर्गमन कर दे। यदि प्रातीच्छक भूल जाए तो आचार्य उसको स्मृति कराए। यदि दोनों भूल जाएं और प्रातीच्छक निर्गमन कर दे तो आसन्न प्रदेश से, जहां स्मृति हो जाए, वहां से लौट आए और कायोत्सर्ग करे। २११५. दूरगतेण तु सरिए साधम्मिं दट्टु तस्सगासम्म । काउस्सग्गं काउं, जं लब्द्धं तं च पेसेति ॥ यदि दूर चले जाने पर याद आए तो साधर्मिक को देखकर उसके पास जाकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग से पूर्व जो सचित्त आदि की उपलब्धि हुई हो, उसे आचार्य के पास भेज दें। २११६. पढमचरमाण एसो, निग्गमणविही समासतो भणितो । एत्तो मज्झिल्लाणं, ववहारविधिं तु वोच्छामि ॥ प्रथम और चरम कारण से निर्गमन करने वालों की यह संक्षिप्त विधि कही है। आगे मध्यमकारणों से निर्गमन करने वालों की व्यवहारविधि कहूंगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy