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छठा उद्देशक
वहीं रह जाते हैं।
२७४०. एवमेगेण दिवसेण, सोहिं पडिपुच्छणं तु बलवं,
कुणति तिन्ह वि । आह सुत्तमवत्थयं ॥ इस प्रकार एक दिन में तीन स्थानों पर स्पर्धकों की शोधि करते हैं यदि वे आचार्य प्रतिपृच्छा करने में बलवान् हों, समर्थ हों तो । शिष्य प्रश्न करता है-तब तो सूत्र अवास्तविक है। २७४१. सुत्तनिवातो थेरे, कलावकाउं तिहेण वा सोधिं ।
बितियपयं च गिलाणे, कलाव काऊण आगमणं ॥ अधिकृत सूत्र का निपात-अवकाश स्थविर विषयक है। आचार्य का प्रतिदिन आगमन न होने की स्थिति में तीन दिनों के अपराधों को पिंडित कर आचार्य के समीप शोधि करे। इसमें द्वितीय पद-अपवाद पद यह है कि ग्लानत्व के कारण आचार्य न आ सके तो अपराधों का कलाप कर अर्थात् उनको एकत्रित कर अन्य स्पर्धक वाले साधु आचार्य के पास जाकर आलोचना कर आ जाते हैं।
२७४२. एवं अगडसुताणं, वीसुठियाणं तु तीसु गामेसु । लहुया असंथरंते, तेसि अणिताण वा लहुओ || इस प्रकार अगीतार्थ मुनि तीन गांवों में पृथक् पृथक् स्थित हैं। उन्हें पर्याप्त प्राप्ति भी नहीं हो रही है। यदि आचार्य प्रतिदिन सार संभाल नहीं करते तो उन्हें चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि वे साधु आचार्य के अनागमन पर उनकी गवेषणा नहीं करते, उन्हें मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। २७४३. एगदिणे एक्केक्के, तिट्ठाणत्थाण दुब्बलो वसधी ।
अह सो अजंगमोच्चिय, ताधे इतरे तधिं एंति ॥ आचार्य दुर्बल हैं। मुनि तीन स्थानों में स्थित हैं। तब वे एक दिन में एक-एक स्पर्धक मुनियों के पास रहते हैं । यदि वे सर्वथा अजंगम हैं तो दूसरे स्पर्धकद्वय के मुनि आचार्य के पास स्वयं जाते हैं।
२७४४. एति व पडिच्छते वा, मेधावि कलावकाउमवराधे ।
अतिदूरे पुण पणए, पक्खे मासे परतरे वा ॥ स्पर्धक मुनियों में जो मेधावी होता है, वह सभी साधुओं के अपराधों को एकत्रित कर आचार्य के पास आकर आलोचना करता है। आचार्य स्पर्धकों की प्रतीक्षा भी करते हैं। यदि आचार्य अतिदूर हैं तो पांचवे पांचवे दिन अथवा पक्ष पक्ष से अथवा मास मास से अथवा डेढ़-डेढ़ मास से आकर आचार्य के समीप आलोचना ग्रहण करते हैं।
२७४५. अगडसुताण न कप्पति, वीसुं मा अतिपसंगतो सुतवं ।
एगाणिओ वसेज्जा, निकायणं चेव परिमाणं ।। अनंतर सूत्र में अकृतश्रुत मुनियों को अकेला रहना नहीं
१. यह बात व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के राशियुग्म शतक में कही गई है। (वृत्ति)
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कल्पता - इसके अतिप्रसंग से श्रुतवान् एकाकी रह सकता है, ऐसा न हो । पूर्व अर्थात् अकृतश्रुत मुनियों के नियम के लिए इस सूत्र का प्रणयन हुआ है।
२७४६. अंतो वा बाहिं वा, अभिनिव्वगडाय ठायमाणस्स । गीतत्थे मासलहू गुरुगो मासो अगीत्थे ॥ पृथक् परिक्षेप वाले वसति के अंतर् या बहिर् अन्य प्रतिश्रय में गीतार्थ भिक्षु रहता है तो उसको प्रायश्चित्त स्वरूप मासलघु और अगीतार्थ को गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। २७४७. अंतो निवेसणस्सा, सोहीमादी व जाव सग्गामो ।
घरवगडाए सुत्तं, एमेव य सेसवगडासु ॥ २७४८. आणादिणो य दोसा, विराधणा होति संजमायाए ।
लज्जा-भय- गोरव धम्मसद्ध रक्खा चउद्धा उ ॥ गृह के अंतर् या बहिर् अभिनिर्वगडा-पृथक् परिक्षेप वाली वसति में रहने पर तथा यावत् स्वग्राम के अभिनिर्वगडा में रहने पर वही शोधि- प्रायश्चित्त है। गृहवगडा (गृहपरिक्षेप) विषयक जो सूत्र है वही शेष वगडाओं के विषय में जानना चाहिए। उक्त प्रायश्चित्त के साथ-साथ आज्ञा आदि दोष तथा संयमविराधना और आत्मविराधना-दोनों होती हैं। उनकी रक्षा के चार उपाय हैं- लज्जा, भय, गौरव तथा धर्मश्रद्धा ।
२७४९. लज्जणिज्जो उ होहामि, लज्जए वा समायरं । कुलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपक्खतो ॥
यदि मैं पापाचरण करूंगा तो लज्जनीय होऊंगा। वह पाप का आचरण करता हुआ अपने कुल, आगमज्ञानियों, तपस्वियों तथा स्वपक्ष-परपक्ष से लज्जित होता है, सोचता है, मैं इनको अपना मुंह कैसे दिखाउंगा, यह सोचकर वह पाप नहीं करता । २७५०. असिलोगस्स वा वाया, जोऽतिसंकति कम्मसं ।
तहावि साधु तं जम्हा, जसो वण्णो य संजमो ॥ वह अवर्णवाद के प्रवाद से अशुभ कर्म करते हुए अत्यंत शंकित होता है। इस आशंका से भी वह यदि अशुभ कर्म नहीं करता तो भी अच्छा है। यश, वर्ण और सयंम एकार्थक हैं। २७५१. जसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो । अलेस्सा तत्थ सिज्झंति, सलेसा तु विभासिता ॥ जो मनुष्य अपने शील की इच्छा करते हैं वे यश के उपजीवी होते हैं।' अलेश्यी (शैलेशी अवस्थाप्राप्त) सिद्ध हो जाते हैं और जो सलेश्यी हैं, वे विकल्पनीय हैं-कुछ सिद्ध होते हैं और कुछ नहीं । जो भव्य हैं वे सिद्ध हो सकते हैं। (मैं पाप का आचरण कर अभव्य हो जाऊंगा, इस भय से वह पापाचरण नहीं करता ।) २७५२. दाहिंति गुरुदंडं तो, जइ नाहिंति तत्ततो। तं च वोढुं न चाएस्सं, घातमादी तु लोगतो ॥
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