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यदि मेरे पापाचरण को गुरु तत्वतः जान लेंगे तो गुरुदंड देंगे। मैं उस दंड को वहन नहीं कर सकूंगा तथा लोगों द्वारा प्रदत्त घात आदि भी सहन नहीं सकूंगा इस भय से पापाचरण नहीं
करता।
२७५३. जोऽहं सोऽहं
सइरकहासुं, चक्कामि गुरुसन्नही । कहमुवासिस्सं, तणायारदूसितो ॥ अभी तो मैं गुरु की सन्निधि में स्वतंत्रतापूर्वक बातचीत कर सकता हूं, फिर मैं अनाचार से दूषित होकर गुरु की उपासना कैसे कर पाऊंगा ?
२७५४. लोए लोउत्तरे चेव, गुरवो मज्झ सम्मता । मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसिं लहुत्तया ॥ मेरे गुरु लोक में और लोकोत्तर में भी सम्मत हैं। मेरे अपराध के कारण उनकी लघुता न हो जाए। २७५५. माणणिज्जो उ सव्वस्स, न मे कोई न पूयए ।
तणाण लहुतरो होहं, इति वज्जेति पावगं ॥
मैं सबके लिए माननीय हूं। ऐसा कोई नहीं जो मेरी पूजा न करता हो। मैं पाप का आचरण कर तृण से भी लघुतर हो जाऊंगा-यह सोचकर वह पाप का वर्जन करता है। २७५६. आयसक्खियमेवेह, पावगं जो वि अप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु आत्मसाक्षी से ही पाप का परिवर्जन करे। दुष्टसंकल्प से रक्षा धर्म से ही होती है। २७५७. निसग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणो । एगो वा परिसाए वा अप्पाणं सोऽभिरक्खति ॥ जो स्वभावतः उत्सर्गकारी है, सर्वत्र छिन्नबंधनममत्वरहित है, वह एकाकी हो अथवा परिषद् के बीच वह अपनी आत्मा की रक्षा करता है।
२७५८. मणपरिणामो वीई, सुभासुभे कंदएण दिट्ठतो । खिप्पकरणं जध लंखियव्वं तहियं इमं होति ॥ मनः परिणाम तरंगों की भांति चंचल होता है-कभी शुभ और कभी अशुभ होता है। यहां वृश्चिक के कंटक का दृष्टांत है। देखें-श्लोक २७६३। जैसे नर्तकी की क्रियाएं शीघ्रता से होती हैं। वैसे ही मनः परिणाम भी बदलता रहता है। (देखें- श्लोक २७६४)
२७५९. परिणामाणवत्थाणं,
सति मोहे उ देहिणं ।
तस्सेव उ अभावेणं, जायते एगभावया ॥ प्राणियों में मानसिक परिणामों की अनवस्थिति मोहकर्म के कारण होती है। मोह के अभाव में मनःपरिणामों की एकरूपता होती है।
२७६०. जधाऽवचिज्जते मोहो, परिणामो वि,
वज्जते । धम्मतो ॥ आत्मा के
तहेव
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सुद्धलेसस्स झाइणो । विसुद्धो परिवढते ॥
सानुवाद व्यवहारभाष्य
जैसे शुद्धलेश्या में प्रवर्तमान ध्यानी के (अर्थात् धर्मध्यानी और शुक्लध्यानी के) मोह का अपचय होता है, वैसे-वैसे उसका विशुद्ध परिणाम बढ़ता है।
२७६१. जधा य कम्मिणो कम्मं, मोहणिज्जं उदिज्जति । तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवहुती ॥ जैसे कर्मी अर्थात् संक्लिष्ट लेश्या वाले प्राणी के मोहनीय कर्म की उदीरणा होती है, उसी प्रकार उसका संक्लिष्ट परिणाम बढ़ता है।
अंबुनाहम्मि,
अणुबद्धपरम्परा । वीई उप्पज्जई एवं परिणामो सुभासुभो ॥
२७६२. जहा य
जैसे समुद्र में अनुबद्ध परपंरा से तरंग उत्पन्न होती है, वैसे प्राणी के शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होता है ।
२७६३. कण्हगोमी जधा चित्ता, कंदयं वा विचित्तयं । परिणामस्स, विचित्ता कालकंडया ॥
तव जैसे कृष्णशृगाली काली रेखाओं से विचित्र होती है, जैसे बिच्छू का कंटक कृष्णादि रेखाओं से विचित्रवर्ण वाला होता है वैसे ही परिणामों की विचित्रता कालकंडक - कालभेद से असंख्येय स्थानात्मक होती है।
२७६४. लंखिया वा जधा खिप्पं उप्पतित्ता समोवए । परिणामो तहा दुविधो, खिप्पं एति अवेति यः ।।
जैसे नर्तकी शीघ्र ही ऊंची छलांग भरकर शीघ्र ही नीचे आ जाती है वैसे ही परिणाम दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ। वह शीघ्र आता है और चला जाता है-शुभ अशुभ में और अशुभ शुभ में चला जाता है।
२७६५. लेस्सट्ठाणेसु एक्केक्के,
ठाणसंखमतिच्छिया । किलिट्टेणेतरेणं वा, जे तु भावेण खुंदती ॥ प्रत्येक लेश्यास्थान में संख्यातीत परिणामस्थान होते हैं। संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट भावों से वे उछलते रहते हैं। २७६६. भवसंहणणं चेव, ठितिं वासज्ज देहिणं ।
परिणामस्स जाणेज्जा, विवड्डी जस्स जत्तिया ॥ प्राणियों के भवसंहनन और स्थिति के आधार पर परिणामों की जिसकी जितनी विवृद्धि है उसको उतनी जाननी चाहिए। २७६७. विसुज्झतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति ।
मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया ॥ जैसे-जैसे भाव विशुद्ध होते हैं वैसे-वैसे मोहकर्म का अपचय होता है। मोह के अपचय होने से भाव विशुद्धि होती है-ऐसा जानो ।
२७६८. उक्कडुंतं जधा तोयं, सीतलेण गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेण
जैसे उबलते हुए पानी को शीतल पानी से ठंडा किया जाता है, रोग को औषध से शांत किया जाता है, उसी प्रकार मोहनीय
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झविज्जती । तहोदओ ॥
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