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पहला उद्देशक
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सारे दोष उत्पन्न होते है। शय्यातर के द्वारा अननुज्ञात विचारभूमि में उभय अर्थात् उच्चार-प्रस्रवण करने पर शय्यातर वसति का व्यवच्छेद कर देता है। अभिशय्या से रात्री में मूल वसति में आते हुए मुनि के श्वापद आदि के कारण अनेक दोष प्राप्त हो सकते हैं तथा न आने पर भी दोषापत्ति होती है, क्योंकि अप्रत्युपेक्षित स्थान में रहने से संयमविराधाना हो सकती है। ६४१. सुण्णाइ गेहाइ उर्वति तेणा,
आरक्खिया ताणि य संचरंति। तेणो त्ति एसो पुररक्खितो वा,
अन्नोन्नसंका अतिवायएज्जा॥ शून्य घर में चोर आते हैं इसलिए आरक्षिक वहां बार-बार आते-जाते हैं। अभिशय्या में पूर्व प्रविष्ट साधु को चोर समझकर अथवा अभिशय्या में पहले चोर घुस गया हो और फिर कोई साधु प्रवेश करता है तो उसे आरक्षिक समझकर इस प्रकार अन्योन्य की आशंका से चोर अथवा आरक्षिक उस मुनि की हत्या कर सकते हैं। ६४२. दुगुंछिता वा अदुगुंछिता वा,
दित्ता अदित्ता व तहिं तिरिक्खा। चउप्पया वाल सिरीसवा वा,
एगो व दो तिण्णि व जत्थ दोसा॥ चतुष्पद तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं-जुगुप्सित तथा अजुगुप्सित । ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं-दृप्त तथा अदृप्त। व्याल, सरीसृप आदि भी तिर्यंच होते हैं। तिर्यंचों से एक, दो, तीन दोष होते हैं।
(एक दोष-आत्मविराधना, दो दोष-आत्मविराधना तथा संयमविराधना, तीन दोष-आत्मविराधना, संयमविराधना तथा उभयविराधना) ६४३. संगारदिन्ना व उति तत्था,
ओहा पडिच्छंति निलिच्छमाणा। इत्थी नपुंसा च करेज्ज दोसे,
तस्सेवणट्ठा व उति जे उ॥ मुनि को अभिशय्या अथवा नैषेधिकी में गया देखकर लोगों को यह आशंका होती है कि ये किसी स्त्री द्वारा दिये गये संकेत के आधार पर यहां आये हैं। अथवा ये स्त्रियां अथवा नपुंसक इनका ओघ-मुख देखते हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये मुनि उन स्त्रियों तथा नपुंसकों का सेवन करने के लिए आये हैं। वे लोग अभिघात, अवर्णवाद आदि दोषों की उद्भावना करते हैं। ६४४. कप्पति उ कारणेहिं अभिसेज्जं गंतुमभिनिसीधिं वा।
लगाओ अगमणम्मि, ताणि य कज्जाणिमाई तु॥ १. देखें-व्यवहारभाष्य, परिशिष्ट ८, कथा सं. ३५। Jain Education International
कारण उत्पन्न होने पर अभिशय्या तथा नैषेधिकी में जाना कल्पता है। यदि वहां न जाए तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वे कारण ये हैं६४५. असज्झाइय पाहुणए, संसत्ते वुट्ठिकाय सुयरहसे।
पढमचरमे दुगं तू, सेसेसु य होति अभिसेज्जा॥
वसति में अस्वाध्यायिक हो, अतिथि मुनियों के आ जाने से वसति संकरी हो गयी हो, वसति प्राणियों से संसक्त हो गयी हो, वसति में पानी चू रहा हो, श्रुतरहस्य अर्थात् छेदश्रुत के व्याख्याता चले गये हों। प्रथम अर्थात् अस्वाध्यायिक में तथा चरम अर्थात् श्रुतरहस्य-इन दो के कारण अभिशय्या तथा नैषेधिकी में जाना चाहिए। शेष कारणों से अभिशय्या में जाना चाहिए। ६४६. छेदसुत-विज्जमंता, पाहुड-अविगीत-महिसदिटुंतो।
इति दोसा चरमपदे, पढमपदे पोरिसीभंगो॥
वसति में छेदसूत्रों की वाचना देने पर अपरिणामक अथवा अतिपरिणामक शिष्य सुन सकता है। विद्या, मंत्र आदि कोई निर्धर्मा व्यक्ति सुन सकता है। योनिप्राभूत आदि की वाचना देते समय निर्धर्मा व्यक्ति सुनकर उसका दुरुपयोग कर सकता है। इस विषय में महिष का दृष्टांत है। वसति में चरमपद-श्रुतरहस्य की वाचना देने से ये दोष उत्पन्न होते हैं तथा प्रथमपदअस्वाध्यायिक में पौरुषीभंग होने का दोष उत्पन्न होता है। (पौरुषीभंग से प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।) ६४७. अतिसंघट्टे हत्थादिघट्टणं जग्गणे अजिण्णादी।
दोसु य संजमदोसा, जग्गण उल्लोवहीया वा।
अतिसंकीर्ण वसति में यदि अनेक मुनियों का निवास होता है तो दिन में ज्यों-त्यों रह जाते हैं। परंतु रात्री में मुनियों का अतिसंघट्टन होता है। परस्पर हाथों का घट्टन होता है। इससे जागरण होता है। जागने से अजीर्ण आदि रोग होते हैं।
वसति प्राणियों से संसक्त हो गयी हो अथवा वसति में पानी चू रहा हो-इन दोनों में असयंम तथा संयमविराधना का दोष लगता है। वसति में पानी चूने के कारण उपधि गीले हो जाते हैं। रात्री में जागना पड़ता है, नींद नहीं आती। ६४८. दिलृ कारणगमणं, जइ उ गुरू वच्चती ततो गुरुगा।
ओराल इत्थि पेल्लण, संका पच्चत्थिया दोसा॥
कारण में अभिशय्या आदि में जाने की बात उपलब्ध है। यदि इन कारणों से गुरु आचार्य अभिशय्या आदि में गमन करते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। (शिष्य ने पूछा-गुरु के गमन में क्या दोष है?) आचार्य कहते हैंआचार्य प्रायः उदारशरीर वाले होते हैं। अभिशय्या आदि में जाने
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