________________
७०
गुरु- आचार्य अभिशय्या अथवा अभिनैषेधिकी में जाते हैं तो उन्हें अनुद्घात चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३३. तेणादेस गिलाणे झामण इत्थी नपुंस मुच्छा थ
ऊणत्तणेण दोसा, हवंति एते उ वसधीए । समर्थ वसतिपाल भिक्षु के बसति को छोड़कर अभिशय्या आदि में जाने से ये दोष उत्पन्न होते हैं। वसति को सूनी देखकर उसमें चोर घुस सकते हैं। आगंतुक अतिथि मुनियों का योगक्षेम नहीं हो सकता । ग्लान को असमाधि उत्पन्न हो सकती है। वसति में अग्नि प्रज्वलित हो सकती है, कोई उसे जला सकता है। वसति में कामविह्वल स्त्री नपुंसक आ सकते हैं। किसी को मूर्च्छा आ सकती है (इसकी विस्तृत व्याख्या के लिए देखें- गाथा ६३४ से ६३७)।
६३४. दुविधाऽवहार सोधी, एसणघाती य जा य परिहाणी ।
आएसमविस्सामण, परितावणता य एक्कतरे ॥ अपहार (अपहरण) के दो प्रकार हैं-साधुओं का अपहार तथा उपधि का अपहार। दोनों प्रकार के अपहार में शोधिप्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उपकरण, पात्र आदि के अपहार से एषणा की घात तथा सूत्रार्थ (सूत्रपौरूषी और अर्थ पौरुषी) की परिहानी होती है। वसतिपाल तथा साधुओं के अभिशय्या आदि में चले जाने पर जो अतिथि मुनि आते हैं, उनकी विश्रामणा नहीं होती और तब उनको अनागाद अथवा आगाढ़ परितापना होती है। इसका भी वसतिपाल को अथवा अन्यान्य साधुओं को प्रायश्चित्त प्राप्त होता है अथवा जब एक्कतर अकेला एक वसतिपाल ही रहता है और अनेक अतिथि मुनि आ जाते हैं, और वह अकेला उनकी विश्रामणा करता है, तब भी उसे परितापनाहोती है। उस निमित्त से भी प्रायश्चित्त आता है। ६३५. आदेसमविस्सामण, परितावण तेसऽवच्छलत्तं च ।
गुरुकरणे वि य दोसा, हवंति परितावणादीया ॥ अतिथि मुनियों की विश्रामणा न करने पर वे परितापना का अनुभव करते हैं तथा अवात्सल्यकरण से प्रायश्चित्त आता है। जब कोई नहीं रहता तब गुरु स्वयं उनका वात्सल्य करते हैं। गुरु के भी परितापना आदि अनेक दोष होते हैं।
१. यदि स्तेन एक साधु का अपहार अपहरण करते हैं तो वसतिपाल को मूल, दो का अपहार करने पर अनवस्थाप्य और तीन का अपहार करने पर पारांचित प्रायश्चित्त आता है। जघन्य उपधि के अपहार में पांच रात-दिन, मध्यम उपधि के अपहार में मासलघु और उत्कृष्ट उपधि के अपहार में चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है।
२. गुरु जब स्वयं अतिथि मुनियों की सेवा में व्यापृत होते हैं तब शरीर की सुकुमारता के कारण अनागाद अथवा आगाद परितापना होती
Jain Education International
सानुवाद व्यवहारभाष्य
६३६. सयकरणमकरणे वा, गिलाण परितावणा य दुहओ वि बालोवधीण बाहो, तबड अण्णे वि आलित्ते ॥ तदट्ठ ग्लान को दो प्रकार की परितापना होती है। यदि वह स्वयं उद्वर्तन आदि करता है अथवा नहीं करता है तो भी उसे परिताप होता है। इसके निमित्त भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वसति में आग लग जाने पर बाल मुनियों का तथा उपधि का दाह हो सकता है। उस उपधि को तथा बाल मुनियों को वसति से बाहर निकालने के लिए कोई अन्य व्यक्ति वसति में प्रवेश करता है तो कदाचित् वह भी जल सकता है। इसलिए उभयनिमित्तक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
६३७. इत्थी नपुंसगा वि य, ओमत्तणतो तिहा भवे दोसा ।
अभिघात पित्ततो वा मुच्छा अंतो व बाहिं व॥ वसति में थोड़े साथ है यह सोचकर स्त्रियां या नपुंसक वहां वसति में आ सकते हैं। उनके कारण तीन प्रकार के दोष हो सकते हैं- आत्मसमुत्य, परसमुत्थ तथा उभयसमुत्थ।'
वसति के बाहर या भीतर रहते हुए भी किसी प्रकार के अभिघात से तथा पित्त के प्रकोप से मूर्च्छा हो सकती है। उसके निमित्त से भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३८. जत्थ विय ते वयंती,
अभिसेज्जं वा वि अभिणिसीधिं वा । तत्य वि य इमे दोसा,
होंति गयाणं मुणेयव्वा ॥
जहां भी जो मुनि अभिशय्या और नैवेधिकी में (निष्कारण) जाते हैं वहां भी इन जाने वालों के ये दोष होते हैं। ६३९. वीयार तेण आरक्खि, तिरिक्खा इत्थिओ नपुंसा य ।
सविसेसतरे बोसा, दप्परायाणं हवंतेते ॥
जो दर्पगत अर्थात् निष्कारण अभिशय्या आदि में जाते हैं, उन मुनियों के ये विशेष दोष होते हैं- विचारभूमि, स्तेन, आरक्षिक, तिर्यंच, स्त्रियां तथा नपुंसक ।
(इनकी विस्तृत व्याख्या अगली गाथाओं में) ६४०. अप्पडिले हियदोसा, अविदिने वा हवंति उभयम्मि । वसधीवाघातेण य, पंतमणिते य दोसा उ॥ अप्रत्युपेक्षित विचारभूमि में जाने से ओघनियुक्ति में निर्दिष्ट
है। रोग से आक्रांत हो सकते हैं सूत्रार्थहानि होती है। धर्मदेशना का व्याघात होता है। लोगों में यह अवर्णवाद होता है कि शिष्य कितने अविनीत हैं।
३. स्त्री को देखकर साधु का स्वयं क्षुब्ध होना आत्मसमुत्थ दोष है। स्त्री आदि साधुओं को क्षुब्ध करती हैं यह परसमुत्थदोष है। स्वयं क्षुब्ध होना तथा स्त्री आदि को क्षुब्ध करना यह उभयसमुत्थदोष है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org