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पहला उद्देशक देखें-गाथा १७८ से १८१।
में प्रविष्ट योद्धा छले जाते हैं वैसे ही श्रमणयोद्धा भी प्रमाद से छले ६२०. निव्वितिए पुरिमड्ढे, एक्कासण अंबिले चउत्थे य। जाते हैं। छलना दो प्रकार की होती है-द्रव्यछलना और
पण दस पण्णरसे या, वीसा तत्तो य पणुवीसा।।। भावछलना। द्रव्यछलना में योद्धा का उदाहरण है और ६२१. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। भावछलना में श्रमणयोद्धा का उदाहरण है।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च।। ६२७. आवरिता वि रणमुहे, जधा छलिज्जंति अप्पमत्ता वि। देखें-गाथा १६३, १६४।।
छलणा वि होति दुविहा, जीवंतकारी य इतरी य॥ ६२२. एसेव गमो नियमा, मासा-दुमासादिगा तु संजोगा।
आवृत्त-सन्नद्ध और अप्रमत्त योद्धा भी रणमुख-मोर्चे पर . उग्घातमणुग्याए, मीसम्मि य सातिरेगे य॥
प्रतिभटों से छले जाते हैं। वह छलना दो प्रकार की हैयही विकल्प नियमतः मास, द्विमास आदि समस्त संयोगों
जीवितांतकरी तथा इतरी-परितापनाकरी। में तथा उद्घात, अनुद्घात, मिश्र तथा सातिरेक मिश्र के विषय में
६२८. मूलगुण-उत्तरगुणे, जयमाणा वि हु तधा छलिज्जंति। जानना चाहिए।
भावच्छलणाय जती, सा वि य देसे य सव्वे य॥ ६२३. एसेव गमो नियमा, समणीणं दुगविवज्जितो होति।
मूलगुण और उत्तरगुणों में यतमान मुनि भी योद्धा की भांति आयरियादीण जहा, पवित्तिणिमादीण वि तधेव।।
उसी प्रकार भावछलना से छले जाते हैं। भावछलना के दो प्रकार जो विकल्प श्रमणों के लिए कहे गये हैं वे ही विकल्प
हैं-देशतः और सर्वतः। (जिससे तपोर्ह प्रायश्चित्त प्राप्त होता है नियमतः श्रमणियों के लिए हैं। इनमें दो का वर्जन है-पारांचित
वह देशतः भावछलना है और जिससे मूल प्रायश्चित्त आता है और अनवस्थाप्य। श्रमणियों को यह प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी
वह सर्वतः भावछलना है।) उनको यह नहीं दिया जाता। उन्हें परिहारतप का प्रायश्चित्त भी
६२९. एवं तू परिहारी, अप्परिहारी य हुज्ज बहुया उ। . नहीं दिया जाता। जैसे आचार्य आदि के तीन भेद हैं, वैसे ही
तेगेंतो व निसीहिं, अभिसेज्जं वावि चेतेज्जा ।। प्रवर्तिनी आदि के भी तीन भेद हैं-प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी तथा भिक्षुणी। आचार्य स्थानीय है प्रवर्तिनी, उपाध्याय स्थानीय है
इस प्रकार बहुत पारिहारिक और अपारिहारिक हो जाते गणावच्छेदिनी तथा भिक्षु स्थानीय है भिक्षुणी। जैसे आचार्य
हैं। वे एकांत में नैषेधिकी तथा अभिशय्या में जाने की इच्छा आदि विषयक प्रायश्चित्त है वही प्रवर्तिनी आदि के विषय में
करते हैं। जानना चाहिए।
६३०. ठाणं निसीहिय त्ति य, एगटुं जत्थ ठाणमेवेगं। ६२४. परिहारियाण उ विणा, भवंति इतरेहि वा अपरिहारी।
चेतेंति निसि दिया वा, सुत्तत्थनिसीहिया सा तु॥ मेरावसेसकधणं, इति मिस्सगसुत्तसंबंधो॥
६३१. सज्झायं काऊणं, निसीहियातो निसिं चिय उति। पारिहारिक अपारिहारिक के बिना नहीं होते और
अभिवसिउं जत्थ निसिं, उवेंति पातो तई सेज्जा। अपारिहारिक पारिहारिक के बिना नहीं होते। पारिहारिक की
स्थान और नैषेधिकी एकार्थक हैं। जहां केवल 'स्थान' ही मेरा-सामाचारी पूर्व सूत्र में बताई जा चुकी है। इस सूत्र में
स्वाध्याय निमित्तक होता है, जहां रात-दिन साधु सूत्रार्थ के लिए अवशिष्ट अपारिहारिक की मेरा का कथन है। यह मिश्रक सूत्र
जाते हैं वह सूत्रार्थ नैषेधिकी है। जिस नैषेधिकी में दिन में का पूर्व सूत्र के साथ संबंध है।।
स्वाध्याय कर दिन में और रात्री में स्वाध्याय कर रात्री में ही ६२५. पुव्वंसि अप्पभत्तो, भिक्खू उववण्णितो भदंतेहिं।।
वसति में आ जाते हैं वह अभिनषेधिकी कहलाती है। जहां दिन में एक्के दुवे व होज्जा, बहुया उ कहं समावण्णा ।।
अथवा रात्री में वहीं रहकर प्रातः वसति में आते हैं उसे शिष्य कहता है-भदंत ! आपने पहले कल्प अध्ययन में
अभिशय्या (अभिनिषद्या) कहा जाता है। भिक्षु को अप्रमत्त के रूप में वर्णित किया है। फिर इनको परिहार- ६३२. निक्कारणम्मि गुरुगा,कज्जे लहुगा अपुच्छणे लहुओ। तप का प्रायश्चित्त कैसे आ सकता है? एक, दो हो सकते हैं, पडिसेहम्मि य लहुया, गुरुगमणे होतऽणुग्घाता॥ परंतु बहुतों को पारिहारिकतप कैसे प्राप्त हो सकता है ?
जो निष्कारण अभिशय्या अथवा अभिनषेधिकी में जाते हैं ६२६. चोदग बहुउप्पत्ती, जोधा व जधा तथा समणजोधा। उन्हें चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो कार्य उत्पन्न होने
दव्वच्छलणे जोधा, भावच्छलणे समणजोधा॥ पर वहां जाते हैं तो उन्हें चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता
आचार्य ने कहा-वत्स ! परीसहों को सहन न करने के है। कार्य समुत्पन्न होने पर भी जो बिना पूछे जाते हैं तो उन्हें एक कारण परिहारतप की प्राप्ति में बहुतों को होती है अतः लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो स्थविरों द्वारा निषेध करने पारिहारिकों के बाहुल्य की उत्पत्ति स्वाभाविक है। जैसे-रणभूमि पर भी जाते हैं तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि
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