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________________ ६८ करता है, वह स्थापित कर दिया जाता है, जब तक वैयावृत्त्य की परिसमाप्ति नहीं हो जाती। यह स्थापनिका आरोपणा है। कृत्स्ना आरोपणा वह है जिसमें झोष नहीं होता है। अकृत्स्ना आरोपणा वह है जिसमें कुछ झोष होता है। हाडहडा आरोपणा प्रकार हैं-सघोरूपा स्थापिता और प्रस्थापिता (इनका वर्णन अगले श्लोक में है।) ६०१. उग्घातमणुग्घातं, मासादि तवो उ दिज्जते सज्जं । मासादी निक्खित्ते, जं सेसं तं अणुग्धातं ॥ जो उद्घान लघु अनुदधात गुरु मासिक आदि तमः प्रायश्चित्त आता है और तत्काल सारा दे दिया जाता है। वह सद्योरूपा हाडहडा आरोपणा है। जो मासिक आदि प्रायश्चित्त को वैयावृत्त्य आदि के कारण निक्षिप्त कर दिया जाता है, फिर शेष उद्घात अथवा अनुद्घात प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, तब वह सारा प्रायश्चित्त अनुद्घात दिया जाता है। वह स्थापिता हाडा आरोपणा है। ६०२. छम्मासादि वहंते, अंतरे आवण्ण जा तु आरुवणा । सा होति अणुग्धाता, तिन्नि विगप्पा तु चरिमाए । कोई आलोचक षाण्मासिक आदि तप का वहन कर रहा है। और बीच में ही दूसरा प्रायश्चित प्राप्त हो जाता है तो उसे अनुद्घात की जो आरोपणा की जाती है वह प्रस्थापिता हाडडडा आरोपणा है। ये चरम हाडहडा के तीन विकल्प हैं। ६०३. सा पुण जहन्न उक्कोस मज्झिमा होति तिन्नि तु विगप्पा | मासो छम्मासा वा, मध्यम अहन्नुक्कोस जे मज्झे । अथवा हाडहटा आरोपण के तीन विकल्प ये हैं-जघन्य, और • उत्कृष्ट । गुरुमास जघन्य है, छह गुरुमास उत्कृष्ट तथा इन दोनों के मध्य में जो मास हैं वे मध्यम हैं। ६०३ / १. एगूणवीसति विभासितस्स हत्थादिवायणं तस्स । आरोवणरासिस्स तु वहंतगा होतिमे पुरिसा ॥ 'जो भिक्षु हस्तकर्म करता है इस सूत्र से प्रारंभ कर निशीथ के १९ वें उद्देशक के अंतिम 'वाचनासूत्र' पर्यंत जो प्रायश्चित्त राशि कही गई है, उसको वहन करने वाले ये निम्नोक्त पुरुष होते हैं। ६०४. कयकरणा इतरे या, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा | निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी ॥ ६०५. अकतकरणा वि दुविधा, अणभिगता अभिगता य बोधव्वा । जं सेवेति अभिगते, Jain Education International अभिगते अत्थिरे इच्छा ॥ ६०६. अहवा साविक्खितरे, निरवेक्खा नियमसा उ कयकरणा इतरे कताकता वा, थिराऽथिरा नवरि गीयत्था ।। कयकरणा ते उ उभयपरियाए । अभिगतकयकरणत्तं, जोगायतगारिहा केई ॥ ६०७. छट्ठट्ठमादिएहिं, देखें- गाथा १५९, १६०, १६१, १६२८ ६०८. सव्वेसिं अविसिट्ठा, आवत्ती तेण पढमता मूलं । सावेक्खे गुरुमूलं, कताकते होति छेदो उ॥ देखें - गाथा १६६ | सानुवाद व्यवहारभाष्य ६०९. पढमस्स होति मूलं, बितिए मूलं च छेद छम्गुरुगा। जतणाय होति सुद्धो, अजयण गुरुगा तिविधभेदो || देखें-गाथा १६५॥ ६१०. सावेक्खो त्ति च काउं, गुरुस्स कडजोगिणो भवे छेदो । अकयकरणम्मि छम्गुरु, इति अड्डोकंतिए नेयं ॥ ६११. अकयकरणा उ गीता, ज़े य अगीता य अकय अथिरा य । तेसावत्ति अनंतर, बहुयंतरियं व झोसो वा ।। ६१२. आयरियादी तिविधो, सावेक्खाणं तु किं कतो भेदो। एतेसिं पच्छित्तं, दाणं चणं अतो तिविधो ॥ ६१३. कारणकमारणं वा, जतणाऽजतण व नत्थिऽगीयत्ये । एतेण कारणेणं, आयारियादी भवे आयारियादी भवे तिविधा ॥ ६१४. कजाकज्ज जताऽजत, अविजाणंतो अगीतो जं सेवे। सो होइ तस्स बप्पो, गीते वप्पाजते दोसा ॥ ६१५. दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए । तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न वि य सोही ॥ देखें गाथा - १६७ से १७२ । ६१६. तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग वाउलण- साहणा चेव । पण्णवणमणिच्छंते, दिट्ठतो भंडिपोतेहिं ॥ ६१७. सुद्धाभि अगीते, अजयणकरणकपणे भवे गुरुगा। कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ ६१८. जा एगदेसे अदढा उ मंडी, जा दुब्बला संठविता वि संती, सीलप्पए सा करेति कज्जं । ६१९. जो एगदेसे अदढो उ पोतो, For Private & Personal Use Only न तं तु सीर्लेति विसपण्णदारुं ॥ जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, सीलप्पए सो उ करेति कज्जं । न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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