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इत्तिारचममा
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सानुवाद व्यवहारभाष्य बहुत क्लेश सहना छड़ा।' आचार्य उसे दंडित करते हुए अपने १६३४.वतअतिचारे पगते,अयमवि अण्णो य तस्स अतियारो। मुनियों से कहते हैं-'आर्यो! इस मुनि को तीन वर्ष तक कोई
इत्तिरियमपत्तं वा, वुत्तं इदमावकहियं तु॥ वंदना न करे। यह इसके लिए दंड है।'
पूर्व सूत्रों में व्रत के अतिचारों का अधिकार था। यह भी व्रत १६२९. तिण्हं समाण पुरतो, होतऽरिह पुणो वि निव्विकारोउ। का अन्य अतिचार है। पूर्व सूत्रों में इत्वरिक अपात्र का कथन
जावज्जीवमणरिहा, इणमन्ने तू गणादीणं॥ किया गया। इन सात सूत्रों में यावत्कथित अपात्र का उल्लेख है।
यदि वह तीन वर्षों के बाद निर्विकार हो जाता है तो १६३५. अधवा एगधिगारो उद्देसो ततियओ य ववहारो। गणावच्छेदकत्व आदि पदों के लिए योग्य हो जाता है। जो
केरिसओ आयरिओ, ठाविज्जति केरिसो णे ति।। अनिक्षिप्तपदवाले होकर प्रतिसेवना करते हैं, वे यावज्जीवन तक
अथवा व्यवहार सूत्र के तीसरे उद्देशकाधिकार में कैसे गणावच्छेदकत्वादि पद के लिए अनर्ह होते हैं।
आचार्य को स्थापित करे और कैसे को नहीं-यह प्रतिपादन करने १६३०. पढमोऽनिक्खित्तगणो,
के लिए यह सूत्र सप्सक है। बितिओ पुण होति अकडजोगि त्ति।
को नोति अटलोशिना १६३६. अधवा दीवगमेतं, जध पडिसिद्धो अभिक्खमाइल्लो। ततिओ जम्म सदेसे
सागारिसेवि एवं, अभिक्खओधाणकारी य॥ चउत्थ उ विहारभूमीए॥
अथवा यह सूत्र सप्तक दीपक है। (पूर्व सूत्रोक्त अधिकारी १६३१. पंचम निक्खित्तगणो, कडजोगी जो भवे सदेसम्मि।
का उद्दीपन करता है।) जैसे इस सूत्रसप्तक से बहुत बार माया जदि सेवंति अकरणं, पंचण्ह वि बाहिरा होति॥
करने वाले, मैथुन प्रतिसेवी तथा बार-बार अवधावन करने वाले
को यावज्जीवन आचार्यत्व आदि पदों का प्रतिषेध है। पहला है अनिक्षिप्तगण वाला, दूसरा है अकृतयोगी, तीसरा है जन्म संबंधी स्वदेश में अकृत्यसेवी, चौथा है विहारभूमी में
१६३७. एगत्त-बहुत्ताणं, 'सव्वेसिं तेसि एगजातीणं ।
सुत्ताणं पिंडेणं, वोच्छं अत्थं समासेणं॥ अकार्यसेवी, पांचवां है निक्षिप्तगण वाला कृतयोगी होकर भी स्वदेश में अकार्यसेवी-ये जो अकरण अर्थात् मैथुन का सेवन
एकत्व, बहुत्व आदि संबंधी इन सभी एक जातीय सूत्रों का
पिंडितरूप से संक्षेप में अर्थ कहंगा। करते हैं, ये पांचों प्रकार के व्यक्ति आचार्य आदि पांचों पदों से बहिर् हो जाते हैं।
१६३८. एगत्तियसुत्तेसुं, मणिएसुं किं पुणो बहुग्गहणं।
चोदग! सुणसू इणमो, जं कारण मो बहुग्गहणं॥ १६३२. आयरियमादियाणं पंचण्हं जज्जियं अणरिहाउ।
एकत्विक-एक वचन से कहे गए सूत्रों का बहुग्रहण क्यों ? चउगुरु य सत्तरत्तादि, जाव आरोवण धरेतो॥
यह शिष्य ने पूछा तब आचार्य ने कहा-वत्स! बहुग्रहण का यह आचार्यत्व आदि पांचों पदों के लिए जो यावज्जीवन तक
कारण तुम मुझसे सुनो। अनर्ह हो जाता है, उसको यदि गण दिया जाता है और जो सात
१६३९. लोगम्मि सतमवज्झं होतमदंडं सहस्स मा एवं । रात तक उस गण को धारण करता है, उसको चार गुरुमास का
___होही उत्तरियम्मि वि, सुत्ता उ कया बहुकए वि॥ आरोपणा प्रायश्चित्त आता है।
लोक में (अनेक व्यक्तियों द्वारा अकृत्य का सेवन करने पर १६३३. अधव अणिक्खित्तगणादिएसु
यह न्याय प्रचलित है।) शत लोग अवध्य होते हैं, सहस्र लोग चउसुं पि सोलसउ भंगा।
अंदड्य होते हैं, इसी प्रकार लोकोत्तर में ऐसा न हो इसलिए चरिमे सुत्तनिवातो,
(चार) सूत्र बहुवचन में प्रकृत हैं। जावज्जीवऽणरिहा सेसा॥
१६४०. कुलगणसंघप्पत्तं, सच्चित्तादी उ कारणागाढं। अथवा अनिक्षिप्तगण (अकृतयोगी, स्वदेश में अकृतसेवी
छिद्दाणि निरिक्खंतो, मायी तेणेव असुईओ।। तथा विहारभूमी में अकृत्यकारी) आदि इन चार पदों के सोलह
जो सचित्त आदि विषयक व्यवहार (विवादास्पद प्रश्न) भंग होते हैं। चरम भंग में सूत्रनिपात अर्थात् भिक्षुसूत्र और
कुलप्राप्त, गणप्राप्त अथवा संघप्राप्त है, वह आगाढ़ कारण माना निक्षिप्तसूत्र का अवकाश है। शेष १५ भंगों में वर्तमान मुनि अनर्ह
जाता है। (आहार आदि के उपग्रह में वर्तमान इस व्यवहार का होते हैं।
छेदन मैं करूं) इस बुद्धि से जो दूसरों के छिद्र देखता है वह १. तब वह कहता है-भगवन् ! मैं गण से क्यों निकला ? कहां गया ? मुझे २. जो सचित्त आदि विषयक विवादास्पद व्यवहार कुल द्वारा समाहित
कुछ भी याद नहीं है। कर्मों का उपशमन होने पर जब मैं स्वस्थ हुआ करना होता है वह कुलप्राप्त कहा जाता है। इसी प्रकार गणप्राप्त और तभी जान पाया कि मैं गण से बाहर निकल गया हूं।
संघप्राप्त व्यवहार होता है। Jain Education International
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