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तीसरा उद्देशक
मायावी उसी माया के कारण अशुचि होता है । १६४१. दव्वे भावे असुई, भावे आहारवंदणादीहिं । कप्पं कुणति अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं ॥ अशुचि के दो प्रकार हैं- द्रव्यतः और भावतः । भावतः अशुचि वह है जो आहार, वंदना, आदि में अत्यंत आसक्त है तथा द्रव्यतः अशुचि वह है जो विविध रागद्वेष से कल्प्य को अकल्प्य कर देता है।
१६४२. दव्वे भावे असुई, दव्वम्मी विट्ठमादिलित्तो उ । पाणतिवायादीहि उ, भावम्मि उ होति असुईओ ॥ अशुचि के दो प्रकार ये हैं-द्रव्य से तथा भाव से। जो विष्ठा, मूत्र, श्लेष्म आदि से लिप्त होता है वह द्रव्य से अशुचि है। जो प्राणातिपात आदि से अशुचि होता है, वह भावतः अशुचि है। १६४३. तप्पत्तीयं तेसिं, आयरियादी न देंति जज्जीवं ।
पुण ते भिक्खु इमे, अबहुस्सुतमादिणो होंति ॥ माया आदि के कारण भिक्षु को यावज्जीवन आचार्यत्व आदि पद नहीं दिए जाते। वे भिक्षु कौन है ? वे ये हैं-गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय, अबहुश्रुत आदि । १६४४. अबहुस्सुते य ओमे, पडिसेवते अयतोऽप्पचिंते य ।
निरवेक्ख- पमत्त माई, अणरिहे जुंगिते चेव ॥ अबहुश्रुत, अवम, प्रतिसेवक, अयत्नावान्, आत्म-चिंतक, निरपेक्ष, प्रमत्त, मायावी, अनर्ह और जुंगिक-ये आचार्य पद के लिए अनर्ह होते हैं। (व्याख्या आगे की गाथाओं में ।) १६४५. अबहुस्सुतो पकप्पो, अणधीतोमो तु तिवरिसारणं । निक्कारणो वि भिक्खू, कारण पडिसेवओ जो उ ॥ १६४६. अब्भुज्जतनिच्छियओ,
अप्पचितो निरवेक्ख - बालमादीसु ।
अन्नतरपमायजुतो,
असच्चरुइ होति माई तु ॥ १६४७. अवलक्खणा अणरिहा, अच्चाबाधादिया य जे वृत्ता । चउरो य जुंगिता खलु, अच्चंति य भिक्खुणो एते । अबहुश्रुत - जिसने आचार प्रकल्प का अध्ययन नहीं किया है।
अवम - जिसकी प्रव्रज्या के तीन वर्ष अभी नहीं बीते हैं। प्रतिसेवक - जो भिक्षु निष्कारण प्रतिसेवना करता है और कारण में अयतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है ।
आत्मचिंतक अभ्युद्यतमरण का जिसने निश्चय कर लिया
निरपेक्ष-जो बाल आदि मुनियों के प्रति चिंतारहित होता
है ।
है ।
१. पापजीवी -कौंटल आदि शास्त्रोपजीवी ।
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प्रमत्त-जो पांचों प्रकार के प्रमादों में से किसी प्रमाद से युक्त होता है।
मायावी - जिसकी असत्य में (अथवा असंयम में) रुचि होती है।
अनर्ह - जिसमें आचार्य के लक्षण न हो तथा पूर्वोक्त अत्याबाध आदि गुण न हो ।
जुंगिक-चारों प्रकार के जुंगिक (जाति से, कर्म से, शिल्प से तथा शरीर से) ।
भिक्षु आचार्यत्व आदि पदों के लिए अत्यंत अनर्ह होते हैं। १६४८. अधवा जो आगाढं, वंदणआहारमादि संगहितो ।
कप्पं कुणति अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं ।। १६४९. मायी कुणति अकज्जं, को माई जो भवे मुसावादी ।
को पुण मोसावादी, को असुई पावसुतजीवी ॥ अथवा जो वंदन, आहार आदि से अत्यंत संगृहीत है- आसक्त है तथा जो विविध प्रकार से राग-द्वेष के वशीभूत होकर कल्प्य को अकल्प्य कर देता है। (वह अनर्ह होता है।)
शिष्य ने पूछा- ऐसा अकार्य कौन करता है? आचार्य कहते हैं- मायावी ऐसा करता है। मायावी कौन ? जो मृषावादी होता है। मृषावादी कौन होता है ? जो अशुचि है वह मृषावादी होता है। अशुचि कौन होता है ? जो पापजीवी' - पापश्रुत से जीविका चलाता है वह अशुचि होता है।
१६५०. किह पुण कज्जमकज्जं, करेज्ज आहारमादिसंगहितो ।
जह कम्हिइ नगरम्मी, उप्पण्णं संघकज्जं तु ॥ शिष्य ने पूछा- आहार आदि से संगृहीत मुनि कार्य को अकार्य अथवा अकार्य को कार्य कैसे करता है? आचार्य ने कहा- जैसे किसी नगर में संघकार्य (सचित्तादि विषयक व्यवहार) उत्पन्न हुआ।
१६५१. बहुसुत- बहुपरिवारो, य आगतो तत्थ कोई आयरिओ । तेहि य नागरगेहिं, सो तु निउत्तो तु ववहारो ॥
एक बार उस नगर में अपने बहुशिष्य परिवार के साथ आचार्य वहां आए। वहां के नागरिकों ने अर्थात् संघ ने आचार्य को उस व्यवहार के समाधान के लिए नियुक्त किया। १६५२. नाएण छिण्ण ववहार, कुल-गण-संघेण कीरति पमाणं ।
तो सेविउं पवत्ता, आहारादीहि य कज्जिया ।। आचार्य ने व्यवहार का न्याययुक्त समाधान दिया। कुल, गण और संघ ने उसको प्रमाण माना। उसके अनुसार आहार आदि के कार्यार्थी उसका सेवन करने लगे अर्थात् वैसा करने लगे।
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