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________________ दसवां उद्देशक है । उसको कोई बांधे, रुंधे, हनन करे अथवा मारे तो भी उसका निवारण न करना, उसे न रोकना - यह भावतः त्यक्तदेह है। ३८४२. दिव्वादि तिन्नि चउहा, बारस एवं तु होंतुवस्सग्गा । वसग्गहणेणं, आयासंचेतणग्गहणं ॥ दिव्य आदि उपसर्ग तीन प्रकार के हैं-दिव्य, मानुष और तैर्यग् । इन प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार उपसर्गों की सर्वसंख्या ४४३ = १२ होती है। आत्मसंचेतनीय उपसर्ग चार प्रकार के हैं। यह व्युत्सृष्ट के ग्रहण से गृहीत है । ३८४३. हास पदोस वीमंस, पुढो विमाया य दिव्विया चउरो । हास - पदोस- वीमंसा, कुसीला नरगता चउहा ॥ दिव्य उपसर्ग चार प्रकार से होते हैं-हास अर्थात क्रीडा से, प्रद्वेष से विमर्श से यह अपनी प्रतिज्ञा से चलित होता है या नहीं, पृथग् विमात्रा से अर्थात् पूर्वोक्त तीनो में से किंचित्किंचित् । मनुष्य संबंधी चार उपसर्ग-हास्य से, प्रद्वेष से, विमर्श से तथा कुशील प्रतिसेवना से । ३८४४. भयतो पदोस आहारहेतु तहऽवच्चलेणरक्खट्ठा । तिरिया होंति चउद्धा, एते तिविधा वि उवसग्गा ॥ तैरश्च उपसर्गों के चार प्रकार-भय से, प्रद्वेष से, आहार के लिए, संतान और स्थान की रक्षा के लिए। ये दिव्य आदि तीन प्रकार के उपसर्ग कहे गए हैं। ३८४५. घट्टण पवडण थंभण, लेसण चउधा उ आयसंचेया । ते पुण सन्निवयंती, वोसट्ठदारे न इहं तू ॥ आत्मसंचेत्य उपसर्गों के चार प्रकार- घट्टन से, पड़ने से, स्तंभन से पांव आदि का अकड़जाना, श्लेष्म के कारण- अचानक शरीर में श्लेष्म के प्रकोप से शरीरावयव में वात का प्रकोप हो जाने से। ये आत्मसंचेत्य उपसर्ग व्युत्सृष्ट द्वार में समाविष्ट होते हैं, यहां नहीं । ३८४६. मण - वयणकायजोगेहिं, तिहिं उ दिव्वमादिए तिन्नि । सम्म अधियासेती, तत्थं सुण्हाय दिट्ठतो ॥ दिव्य आदि तीनों उपसर्गों को, उनके भेद सहित, मन, वचन और काय - इन तीनों योगों से सम्यकरूप से सहन करना होता है। सहन के दो प्रकार हैं- द्रव्यतः सहन और भावतः सहन । द्रव्यसहन में स्नुषा का दृष्टांत है। ३८४७. सासू-ससुरुक्कोसा, देवर-भत्तारमादि मज्झिमगा । दासादी य जहण्णा, जह सुण्हा सहइ उवसग्गा ॥ सासु-ससुर द्वारा कृत उपसर्ग उत्कृष्ट, देवर और भर्त्ता १. सासु-ससुर ने स्नुषा को अपराध करने पर डांटा। उसे बहुत लज्जा आई । यद्यपि उन्होंने बहुत कटुक वचन कहे। फिर भी उसने सहन किया। देवरों ने उसके साथ उद्दंड वर्ताव किया, उल्लंठ वचन कहे। वह लज्जित न होकर उनको सहन किया। दास-दासी ने कुछ Jain Education International ३४७ द्वारा कृत मध्यम तथा दास दासी द्वारा कृत उपसर्ग जघन्य होते हैं। इन उपसर्गों को स्नुषा ने सहन किया। ३८४८. सासु-ससुरोवमा खलु, दिव्वा दियरोवमा य माणुस्सा । दासत्थाणी तिरिया, तह सम्मं सोऽधियासेति ॥ सासु-ससुर की उपमा से उपमित होते हैं-दिव्य उपसर्ग, देवर की उपमा से उपमित होते हैं-मानुष उपसर्ग और दास स्थानीय हैं तैरश्च उपसर्ग । साधु इन तीनों प्रकारों के उपसर्गों को सम्यक् सहन करता है। ३८४९. दुधावेते समासेणं, सव्वे सामण्णकंटगा । विसयाणुलोमिया चेव, तधेव पडिलोमिया ॥ ये सभी श्रामण्यकंटक - ( श्रामण्य के लिए कांटों के समान) उपसर्ग संक्षेप में दो प्रकार के हैं-विषयानुलोमिक तथा प्रतिलोमिक | ३८५०. वंदण सक्कारादी, अणुलोमा बंध-वहण पडिलोमा। तेच्चिय खमती सव्वे, एत्थं रुक्खेण दिट्ठतो ॥ वंदन, सत्कार आदि अनुलोम उपसर्ग हैं तथा बंधन, वध आदि प्रतिलोम उपसर्ग हैं। साधु इन सबको सहन करता है। यहां वृक्ष का दृष्टांत है। ३८५१. वासीचंदणकप्पो, जह रुक्खो इय सुहदुक्खसमो उ। रागद्दोसविमुक्को, सहती अणुलोमपडिलोमे ॥ जैसे वृक्ष वासी चंदन तुल्य होता है, अर्थात् बर्छा से काटे जाने पर अथवा चंदन से अनुलिप्त होने पर सम रहता है, वैसे ही सुख-दुःख में सम तथा राग-द्वेष से विमुक्त मुनि अनुलोम तथा प्रतिलोम उपसर्गों को सहन करता है। ३८५२. अण्णाउंछं दुविहं, दव्वे भावे य होति नातव्वं । दव्वुंछंण्णेगविधं, लोगारिसीणं मुणेयव्वं ॥ अज्ञातोंछ दो प्रकार का ज्ञातव्य है-द्रव्य अज्ञातोंछ और भाव अज्ञातोंछ । द्रव्योंछ अनेक प्रकार का है। यह लौकिक ऋषियों के होता है, यह जानना चाहिए। ३८५३. उक्खल खलए दव्वी, दंडे संडासए य पोत्तीया । आमे पक्के य तधा, दव्वोंछं होति निक्खेवो ॥ तापस उंछवृत्ति वाले होते हैं। उनके द्रव्योंछ के ये प्रकार हैं-ऊखल में कूटे जाने पर जो शालि, तंदुल आदि बाहर बिखरते हैं, उनको चुनकर रांधना, खलिहान से धान्य को उठा लेने पर बिखरे दानों को चुनना, दर्वी - धान्यराशि में से एक दर्वी जितना धान्य उठाना, दंड - धान्यराशि में से प्रतिदिन एक यष्टि से उठाया जाने वाला धान्य, संडासक - अंगुष्ठ और प्रदेशिनी अंगुली से विपरीत शब्द कहे तो उसने सोचा- इनके वचनों का क्या मूल्य है ? इस प्रकार उनके वचनों की अवगणना कर, प्रत्युत्तर नहीं दिया। सब कुछ सहन कर लिया। यह द्रव्य- सहन है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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