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________________ ३४८ जितना ग्रहण होता है उतना धान्य प्रतिगृह से लेना, पोत्तिस्वामी की अनुज्ञा प्राप्त कर धान्यराशि पर कपड़ा फेंका जाता है, उस पर जो धान्यकण संलग्न होते हैं, ग्रहण करना । अथवा चरक आदि तापस कच्चे या पके हुए की याचना करते हैं - यह सारा द्रव्योंछ का निक्षेप है। ३८५४. पडिमापडिवण्ण एस, भगवं अज्ज किर एत्तिया दत्ती । आदियति त्ति न नज्जति, अण्णाउंछं तवो भणितो ॥ जिस प्रतिमा प्रतिपन्न भगवान् (मुनि) के विषय में यह ज्ञात नहीं होता कि ये आज कितनी दत्तियां ग्रहण करेंगे, यह उनका अज्ञातोंछ तप है। ३८५५. दव्वादभिग्गहो खलु, दव्वे सुद्धुंछ मे त्ति या दत्ती । एलुगमेत्तं खेत्ते, गेण्हति ततियाए कालस्मि ॥ अभिग्रह के चार प्रकार हैं- द्रव्याभिग्रह, क्षेत्राभिग्रह, कालाभिग्रह और भावाभिग्रह । द्रव्यादि अभिग्रह द्रव्यअभिग्रह अर्थात् शुद्ध उंछ ग्रहण करना । अथवा इतनी दत्तियां लेनी हैं - यह भी द्रव्याभिग्रह है। एकमात्र क्षेत्र को उल्लंघ कर भिक्षा लेनायह क्षेत्राभिग्रह है। तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए जाना कालाभिग्रह है। ३८५६. अण्णाउंछं एगोवणीय निज्जूहिऊण समणादी । अगुव्विणि अबालं ती, एलुगविक्खंभणे दोसा ॥ प्रतिमा प्रतिपन्न मुनि एक के द्वारा उपनीत अज्ञातोंछ को ग्रहण करता है परंतु श्रमण आदि को लांघकर भिक्षा के लिए नहीं घूमता । वह उस स्त्री से भिक्षा ग्रहण करता है जो गर्भवती न हो तथा जिसका शिशु स्तनपायी न हो। देहली को लांघकर भिक्षा लेने के ये दोष हैं। ३८५७. अण्णाउंछं च सुद्धं, पंच काऊण अग्गहं । दिणे दिणे अभिगेण्हे, तासिमन्नतरी य तु ॥ प्रथम पांच पिंडैषणाओं का अग्रहण कर अंतिम दो में से किसी एक का ग्रहण कर प्रतिदिन अज्ञातोंछ तथा शुद्ध ग्रहण करता है। ३८५८. एगस्स भुंजमाणस्स, उवणीयं तु गेण्हती । न गेहे दुगमादीणं, अचियत्तं तु मा भवे ॥ प्रतिमा प्रतिपन्न मुनि भोजन करने वाले एक मुनि के लिए उपनीत भक्तपान ग्रहण करता है, दो आदि के लिए उपनीत का ग्रहण नहीं करता। उनके मन में अप्रीति न हो यह इसका हेतु है । ३८५९. अडते भिक्खकालम्मि, घासत्थी वसभादओ । वज्जेति होज्ज मा तेसिं, आउरत्तेण अप्पियं ॥ वृषभ (सांड) आदि भिक्षाकाल में ग्रासार्थी होकर घूमते हैं। दाता में आतुरता के कारण अप्रीति न हो इसलिए उनका वर्जन करता है। Jain Education International ३८६०. दुपय- चउप्पय पक्खी, सानुवाद व्यवहारभाष्य किमणातिथि - समण-साणमादीया । निज्जूहिऊण सव्वे, अडती भिक्खं तु सो ताधे ॥ द्विपद, चतुष्पद, पक्षी, कृपण, अतिथि, श्रमण तथा श्वा आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं। उन सबके चले जाने पर प्रतिमासाधक भिक्षा के लिए जाता है। ३८६१. पुव्वं व चरति तेसिं, नियट्टचारेसु वा अडति पच्छा। जत्थ भवे दोण्णि काला, चरती तत्थ अतिच्छिते ॥ वह साधक या तो उन सबसे पहले भिक्षा के लिए जाता है अथवा उनके भिक्षा से निवृत्त हो जाने पर जाता है। जहां भिक्षाकाल दो होते हैं वहां श्रमण आदि भिक्षा से अतिक्रांत हो जाने पर वह घूमता है । ३८६२. अणारदे उ अण्णेसु, मज्झे चरति संजओ । गेहंत देंतयाणं तु, वज्जयंतो अपत्तियं ॥ ६२. जब अन्य श्रमण आदि भिक्षाकाल में भिक्षाचर्या प्रारंभ नहीं करते तब वह साधक बीच में भिक्षा के लिए जाता है। और भिक्षाचर्या में देने लेने वाले की अप्रीति का वर्जन करता है । ३८६३. नवमासगुव्विणीं खलु, गच्छे वज्जति इतरो सव्वा उ । खीराहारं गच्छो, वज्जेतितरो तु सव्वं पि ॥ गच्छवासी मुनि नौ मास की गर्भवती के हाथ से भिक्षा ग्रहण करने का वर्जन करता है, इतर अर्थात् गच्छनिर्गत मुनि गर्भवतीमात्र का वर्जन करते हैं। गच्छवासी स्तनपायी बालक वाली स्त्री का और गच्छनिर्गत मुनि सभी वय वाले शिशुओं वाली स्त्री का वर्जन करते हैं। ३८६४. गच्छगयनिग्गते वा, लहुगा गुरुगा य एलुगा परतो । आणादिणो य दोसा, दुविधा य विराधणा इणमो ॥ देहली का उल्लंघन करने वाले गच्छवासी को चार लघुमास का तथा गच्छनिर्गत को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञाभंग आदि दोष और दो प्रकार की ये विराधनाएं होती हैं- आत्मविराधना तथा संयमविराधना । ३८६५. संकग्गहणे इच्छा, दुन्निविट्ठा अवाउडा । णिहणुक्खणणविरेगे, तेणे अविदिन्न पाहुडए ॥ ३८६६. बंध-वहे उद्दवणे, व खिंसणा आसियावणा चेव । For Private & Personal Use Only उव्वेवग कुरुंडिए, दीणे अविदिन्न वज्जणया ॥ शंका, ग्रहण, इच्छा, दुर्निविष्ट, अप्रावृत, निधि, उत्खनन, विरेचन, अदत्तादान, प्राभृत-कलह, बंधन, वध, उद्रवण, खिंसना, आसीयावणा, उद्वेजक, कुरूंडित, दीन, अवितीर्ण भूमी - प्रवेश की वर्जना - यह द्वार गाथा है। ( इसकी व्याख्या अगली अनेक गाथाओं में ।) www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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