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सातवां उद्देशक
व्यंतरदेव छल सकते हैं। जनता अप्रीति से उड्डाह कर सकती है। ३१२७. दंडियकालगयम्मी जा संखोभो न कीरते ताव। तद्दिवस भोइ महयर, वाडगपति सेज्जतरमादी ॥ दंडिक - राजा के कालगत होने पर जब तक संक्षोभ रहता है तब तक स्वाध्याय नहीं किया जाता। भोजिक- ग्रामस्वामी, महत्तर - ग्रामप्रधान, वाटकपति, शय्यातर आदि के कालगत होने पर वह दिन अस्वाध्याय का होता है- अर्थात् एक अहोरात्र अस्वाध्यायिक काल है। ३१२८. पगतबहुपक्खिए वा, सत्तघरंतरमते व तद्दिवसं । निद्दुक्खत्ति व गरहा, न पठंति सणीयगं वावि ॥ इसी प्रकार ग्राम में प्रकृत अधिकृत व्यक्ति अथवा बहुपाक्षिक व्यक्ति अथवा सप्तगृहाभ्यंतर में कोई व्यक्ति के कालगत हो जाने पर उस दिन अर्थात् एक अहोरात्र तक स्वाध्याय वर्जित है। स्वाध्याय करते देखकर लोगों में यह ग होती है कि इन्हें कोई दुःख नहीं होता । मंद स्वरों में भी नहीं पढ़ते । ३१२९. हत्थसयमणाहम्मी, जइ सारियमादि तु विगिंचेज्जा । तो सुद्धं अविवित्ते, अन्नं वसहिं विमग्गति ॥ कोई अनाथ व्यक्ति सौ हाथ के भीतर मर जाता है और यदि शय्यातर आदि उसको वहां से हटा देते हैं तो शुद्ध है, स्वाध्याय किया जा सकता है। यदि कोई उस मृत व्यक्ति को वहां से नहीं हटाता है तो मुनि अन्य वसति की मार्गणा करे। ३१३०. अण्णवसहीय असती, ताधे रत्ति वसभा विगिंचंति । विक्खिण्णे व समंता, जं दिवमसढेतरे सुद्धा ॥ अन्य वसति के अभाव में रात्री के समय वृषभ मुनि उस शव को अन्यत्र फेंक देते हैं उस कलेवर को कुत्ते आदि विकीर्ण कर देते हैं, बिखेर देते है। चारों ओर देखकर वे वृषभ मुनि जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, उस सबको बाहर फेंक देते हैं। यदि कलेवर के कुछ अवयव आदि रह जाते हैं तो भी वे स्वाध्याय करते हुए शुद्ध हैं, क्योंकि उनका प्रयत्न अशठभाव से किया गया
था।
३१३१. सारीरं पिय दुविधं, माणुसतेरिच्छिगं समासेणं । तेरिच्छं तत्य तिहा, जल-थल खहनं पुणो चउहा ॥ शारीरिक अस्वाध्यायिक
शरीर में होनेवाला शारीर कहलाता है। संक्षेप में वह दो प्रकार का है - मानुषिक और तैरश्चिक । तैरश्चिक के तीन प्रकार हैं-जलज, स्थलज तथा खज (आकाश संबंधी)। ये तीनों चारचार प्रकार के हैं।
३१३२. चम्मरुधिरं च मंसं अट्ठ पि य होति चउविगप्पं तु । अहवा दव्वादीयं चउव्विहं होति नायव्वं ॥ चर्म, रुधिर, मांस और अस्थि-इस प्रकार जलज आदि के
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चार-चार विकल्प होते हैं। अथवा द्रव्य आदि के भेद से चार प्रकार का ज्ञातव्य है ।
३१३३. पंचिंदियाण दव्वे, खेत्ते सट्ठिहत्थ पोग्गलाइण्णं । तिकुरत्थ महंतेगा, नगरे बाहिं तु गामस्स ॥ द्रव्यतः पंचेन्द्रिय जलज प्राणियों के चर्म आदि चारों का अस्वाध्यायिक होता है, विकलेन्द्रियों का नहीं क्षेत्रतः साठहाथ तक । यदि वह तिर्यंचों के मांस से आकीर्ण है, और यदि वह ग्राम है और तीन छोटी गलियों से परे मांस विकीर्ण हो तो भी स्वाध्याय किया जा सकता है। यदि वह नगर हो तो एक महान् (राजपथ) के अंतरित मांस विकीर्ण हो तो भी स्वाध्याय का परिहार नहीं होता । यदि वह गांव सारा मांस से व्याप्त हो तो गांव के बाहर स्वाध्याय किया जा सकता है। ३१३४. काले तिपोरिसऽड व भावे सुत्तं तु नंदिमादीयं ।
बहि धोय-रद्ध-पक्के, वूढे वा होति सुद्धं तु ॥ सामान्यतः प्रत्येक जलज आदि का चर्म आदि तीन पौरुषी अथवा आठ पौरुषी (महाकाय का हनन होने पर) काल तक स्वाध्याय का विघात करता है। भावतः नंदी सूत्र आदि नहीं पढ़ा जाता। यदि मांस साठ हाथ से परे से धोकर लाया गया हो, रांधा गया हो, पकाया गया हो और वह लाया गया हो तो शुद्ध अर्थात् उससे अस्वाध्यायिक नहीं होती। ३१३५. अंतो पुण सट्टीणं, धोतम्मी अवयवा तहिं होंति । तो तिण्णि पोरिसीओ, परिहरितव्वा तहिं होंति ॥ यदि साठ हाथ के भीतर मांस को धोया जाता है तो अवयव नीचे गिरते ही हैं। ततः तीन पौरुषी तक स्वाध्याय का परिहार करना चाहिए।
३१३६. महकाएऽहोरतं, मज्जारादीण
मूसगादिहते । अविभि भिजे वा, पद्धति एगे जह पलाति ॥ महाकाय मूशक आदि मार्जार से मारे जाने पर एक अहोरात्र आठ प्रहर का अस्वाध्यायिक रहता है। कुछ मानते हैं कि मार्जार यदि मूषक को छिन्न नहीं करता, मार कर ले जाता है। अथवा निगल जाता है और उस स्थान से पलायन कर जाता है तो साधु सूत्र पढ़ सकते हैं।
३१३७. अंतो बहिं च भिन्नं, अंडगबिंदू तधा विजाताए ।
रायपह वूढ सुद्धे, परवयणे साणमादीणि ॥ उपाश्रय में अथवा बाहर (साठ हाथ के भीतर) कोई अंडा फूट गया और उसका कललबिंदु भूमी पर गिरा हो, तैरश्ची की प्रसूति पर राजपथ पर प्रवाहित हो जाने पर, शुद्ध, परवचन श्वान आदि । (इस गाथा की व्याख्या अगली गाथाओं में ।) ३१३८. अंडमुज्झितकप्पे, न य भूमि खणंति इहरहा तिणि । असज्झाइयपमाणं, मच्छियपादा जहिं खुप्पे ॥
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