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अंडा गिरा। अमिन रहा उसको फेंक दिया। स्वाध्याय कल्पता है। यदि अंडा फूट गया तो स्वाध्याय नहीं कल्पता । भूमी का खनन भी नहीं किया जाता। अन्यथा भूमी खनन से अस्वाध्यायिक का अपनयन हो जाता है, फिर भी तीन प्रहर तक अस्वाध्याय रहता है। अंडक बिंदु अस्वाध्यायिक का प्रमाण है। जितने मात्र मै मक्षिका के पैर डूब जाते हैं, उतने मात्र अंडककलल का भूमी पर पड़ने से अस्वाध्यायिक होता है। ३१३९. अजरायु तिणि पोरिसि,
जराउगाणं जरे पडिय तिण्णि।
निज्जंतुवस्स पुरतो,
गलितं जवि निम्गलं होज्जा ॥ अजरायु प्रसूति होने पर तीन पौरुषी और जरायुज की प्रसूति पर जब जरायु नीचे गिर जाती है, उसके पश्चात् तीन प्रहर तक अस्वाध्यायिक रहता है। यदि उस प्रसूता को उपाश्रय के आगे से ले जाया जाता है और जरा गलित हो जाए तो तीन प्रहर तक अस्वाध्याय होता है। निर्गलित होने पर स्वाध्याय किया जा सकता है।
३१४०. रायप न गणिज्जति,
अध पुण अण्णत्थ पोरिसी तिण्णि । अपुण वूढं होज्जा,
वासोदेणं ततो सुद्धं ॥
राजपथ पर अस्वाध्याय करने वाले बिंदु नहीं गिने जाते । अन्यत्र तैरश्च अस्वाध्यायिक तीन प्रहर के स्वाध्याय का विघात करता है। यदि वर्षा के पानी से वे बिंदु बह गए हों तो स्थान शुद्ध है, स्वाध्याय किया जा सकता है।
३१४१. चोदेति समुद्दिसिउं, साणो जदि पोम्गलं तु एज्जाही। उदरगतेणं चिट्ठिति, जा ता चउहा असज्झाओ ॥ जिज्ञासु पूछता है यदि कुत्ता बाहर से मांस मुंह में लेकर वहां आता है और जब तक वहां ठहरता है तो उसके उदरगत मांस से अस्वाध्याय क्यों नहीं होता?
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३१४२. भण्णति जदि ते एवं, सज्झाओ एव तो उ नत्थि तुहं । असन्झाइयस्स जेण, पुण्णो सि तुमं सदाकालं ॥ आचार्य कहते हैं - यदि तुम्हारा यह विचार है तब तो तुम्हारे कभी स्वाध्याय होगा ही नहीं क्योंकि तुम सदाकाल अस्वाध्यायिक से पूर्ण हो, तुम्हारा शरीर रुधिर आदि चतुष्टय से भरा हुआ है।
३१४३. जदि फुसति तहिं तुंडं, जदि वा लेच्छारितेण संचिट्ठे । इधरा न होति चोदग, वंतं वा परिणतं जम्हा ॥ १. पाण-डोम लोगों के आडंबर नाम के यक्ष (अपरनाम - हिरनिक्त) उसका आयतन | उसके नीचे मनुष्य की अस्थियां रखी जाती हैं।
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सानुवाद व्यवहारभाष्य
यदि कुत्ता आदि रक्त खरंटित मुख से उपाश्रय में आते हैं। और अपना मुंह साफ करते हैं अथवा खरंटित मुंह लिए वहां बैठते हैं तब अस्वाध्याय होता है, अन्यथा नहीं । हे शिष्य ! यदि वे वहां आकर वमन भी करते हैं तो अस्वाध्यायिक नहीं होता, क्योंकि वह परिणत हो चुका होता है।
३१४४. माणुस्सगं चउद्धा, अट्ठि मोत्तूण सयमहोरत्तं । परियावण्णविवण्णे, सेसे तिग सत्त अद्वेव ॥
मानुष अस्वाध्यायिक चार प्रकार की है-चर्म, रुधिर, मांस और अस्थि अस्थि को छोड़कर शेष तीन यदि क्षेत्रतः सौ हाथ के भीतर हो तो स्वाध्याय वर्जित है। कालतः अहोरात्र तक
स्वाध्याय रहता है। मनुष्य और तिर्यंच का रुधिर स्वाभाविक वर्ण से विवर्ण हो गया हो तो अस्वाध्यायिक नहीं होती, शेष में अस्वाध्याय होता है। रजस्वला स्त्री हो तो तीन दिन, पुत्र की उत्पत्ति पर सात दिन और पुत्री की उत्पत्ति पर आठ दिन तक का अस्वाध्याय काल है ।
३१४५. रत्तुक्कडया इत्थी, अट्ठ दिणा तेण सत्त सुक्कऽधिए ।
तिण्ह दिणाण परेणं, अणोउगं तं महारतं ॥ निषेककाल में रक्तोत्कटता होने पर पुत्री (स्त्री) होती है, उसके लिए आठ दिन और शुक्र की अधिकता से पुत्र होता है, इसके लिए सात दिन तक अस्वाध्याय काल है। स्त्रियों के तीन दिनों के बाद महारक्त अनार्तव होता है, इसलिए उसकी गणना नहीं की जाती।
३१४६. दंते दिट्ठ विगिंचण, सेसट्ठिग बारसेव वरिसाइं । झामित वूढे सीताण, पाणमादीण रुद्दघरे ॥ यदि वसति में दांत गिरे हुए दीख पड़े तो उसका परिष्ठापन सौ हाथ से आगे कर दे दांतों के अतिरिक्त यदि अन्य अंगोपांग संबंधी अस्थियां हों तो बारह वर्षों तक स्वाध्याय नहीं कल्पता । यदि वह स्थान अग्नि से जल गया हो, पानी के प्रवाह से प्रवाहित हो चुका है तो स्वाध्याय कल्पता है, अन्यथा नहीं । श्मशान, पाणजाति का यक्षायतन, रुद्रधर । (इन तीनों की व्याख्या आगे ।) ३१४७. सीताणे जं दहुं, न तं तु मोत्तूणऽणाह निहताई । आडंबरे य रुद्दे, माइसु हेडिया बारा ॥ श्मशान में जो अस्थियां दग्ध हो चुकी हैं उनको छोड़कर शेष जो दग्ध नहीं हुई हैं अथवा जो अनाथ शव जलाया नहीं गया है अथवा खोद कर गाड़ा गया है-ये बारह वर्ष के स्वाध्याय का घात करते हैं आडंबर डोम लोगों के यक्षायतन, रुद्रदेव के यक्षायतन तथा मातृगृहों के नीचे मनुष्यों की अस्थियां रखी जाती हैं। अतः बारह वर्ष तक अस्वाध्याय होता है।
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मातृगृह चामुंडायतन तथा रुद्रगृह के नीचे मनुष्य का कपाल रखा जाता है। (टीका)
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