SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ सानुवाद व्यवहारभाष्य जा सकता। यदि दिया जाता है तो द्विघात होता है-सूत्र और अर्थ अयोग्य-अकारक द्रव्य का प्रतिषेध करने पर दूसरे भिक्षु से शंकित हो जाता है। के लिए भी भिक्षा दुर्लभ हो जाती है। प्रतिषेध करने से श्रद्धा का २५८२. मेढीभूते बाहिं, भुंजण आदेसमादि आगमणं। भंग, अप्रीति, जिह्वादोष तथा अवर्णवाद होता है। विणए गिलाणमादी, अच्छंतो मेढिसंदेसो॥ २५८८. पुव्विं अदत्तदाणा, अकोविया इह उ संकिलिस्संति। आचार्य गच्छ के मेढ़ीभूत अर्थात् आधारभूत होते हैं। वे काऊण अंतरायं, नेच्छंतिटुं पि दिज्जंतं। भिक्षा के लिए बाहर घूमते हैं तो साधु वसति के बाहिर जहां-तहां (राजा को जब पात्रगत अंतप्रांत आहर दिखाया तब राजा भोजन कर लेते हैं। मेहमान मनियों का आगमन हो सकता है। ने कहा) पूर्वजन्म में दान न देने के कारण आप यहां उनका विनय कौन करे? ग्लान आदि (बाल, वृद्ध, असहाय) की अकोविद-अतत्वज्ञ होकर क्लेश पा रहे हैं। 'राजपिंड अग्राह्य है' चिंता कौन करे? आचार्य के बाहर रहने से कौन उनको संदेश दे।। ऐसा कहकर अंतराय करते हैं तथा दीयमान इष्टवस्तु को भी मेढिभूत के संदेश से सब सुस्थित हो जाता है। लेना नहीं चाहते। २५८३. आलोय दावणं वा, कस्स करेहामो कं च छंदेमो। २५८९. गहण पडिसेध भुंजण, अभुंजणे चेव मासियं लहयं । आयरिए व अडते, को अच्छिउमुच्छहे अन्नो। अमणुण्ण अलंभे वा, खिंसेज्ज व सेहमादी य॥ शिष्य सोचते हैं-हम किसके पास आलोचना करेंगे? आचार्य अकारक द्रव्य ग्रहण कर लेते हैं और शिष्यों द्वारा किसको भक्त-पान दिखायेंगे? किसको निमंत्रित करेंगे? आचार्य प्रतिषेध करने पर भी यदि खा लेते हैं तो रोगग्रस्त हो जाते हैं। यदि गोचरचर्या में घूमते हैं तो दूसरा कौन वसति में रहने के लिए उसको न खाने पर, परिष्ठापन के दोष के कारण एक लघुमास का उत्साहित होगा? प्रायश्चित्त आता है। आचार्य को यदि अमनोज्ञ द्रव्य का लाभ होता है तथा मनोज्ञद्रव्य का लाभ नहीं होता तब शैक्ष मुनि आदि २५८४. णीणिति अकारगम्मी, दव्वे पडिसेहणा हवति दुक्खं। उनकी खिंसना करते हैं। रायनिमंतणगहणे, खिंसणवावारणा दुक्खं ।। २५९०.वावारियगिलाणादियाण,गेण्हह जोग्गं ति ते तओ बेति। आचार्य भिक्षाचर्या कर रहे हैं। भिक्षा के लिए अकारकद्रव्य तुब्मे कीस न गेण्हह, हिंडंता ऊ सयं चेव।। बाहर रखा हुआ है। उसका प्रतिषेध करना दुःखकारक होता है। जब आचार्य शिष्यों अथवा प्रातिच्छिकों को ग्लान आदि राजा द्वारा भोजन के लिए निमंत्रित करने पर भी ग्रहण न करने से । के लिए प्रायोग्य द्रव्य लाने के लिए व्याप्त करते हैं तब वे कहते राजा उनकी खिंसना करता है। आचार्य को ग्लान आदि के हैं-भंते! आप स्वयं गोचरचर्या में घूमते हुए ग्लान आदि के प्रायोग्य आहार आदि न मिलने पर वे शिष्यों अथवा प्रतिच्छिकों प्रायोग्य द्रव्य क्यों नहीं लाए? को उसमें व्याप्त करते हैं तब वे आचार्य का परिभव करते हैं। २५९१. एवाणाए परिभवो, बेंति, दीसए य पाडिरूवं भे। अतः उनको व्याप्त करना भी दुःखकर होता है, कष्टकारक आणेह जाणमाणा, खिसंती एवमादीहिं॥ होता है। इस प्रकार आज्ञा का परिभव करते हुए वे कहते हैं-आप २५८५. जेणेव कारणेणं, सीसमिणं मुंडियं भंदतेणं। अपने प्रातिहार्य-अतिशय आचार्यत्व को जानते हुए भी ग्लान वयणघरवासिणी वि हु, न मुंडिया ते कहं जीहा १ ॥ प्रायोग्य द्रव्य क्यों नहीं लाए? इस प्रकार उच्चावच वचनों से गृहस्वामिनी कहती है-मुने! जिस कारण से भदंत आचार्य की हीलना करते हैं। आचार्य ने तुम्हारा यह सिर मुंडा है, उसी कारण से, तुम्हारे २५९२. वाले य साणमादी दिटुंतो तत्थ होति छत्तेणं। वदनगृह में रहने वाली इस तुम्हारी जिह्वा को क्यों नहीं मूंड लोभे य आभिओगे, विसे य इत्थीकए वावी ॥ डाला। (क्योंकि तुम यह कर रहे हो कि यह द्रव्य अकारक है, आचार्य गोचरचर्या में घूमते हैं। श्वान आदि व्याल उनके दूसरा दो।) पीछे लग जाते हैं। यहां छत्र का दृष्टांत है।ऊपर रहा हुआ छत्र ही २५८६. गतमागतम्मि लोए, सीसा वि तधेव तस्स गच्छंति।। शोभित होता है, नीचे गिरा हुआ नहीं। (इसी प्रकार आचार्य भी सयमेव दुट्ठजिब्भो, सीसे विणइस्सती केणं॥ अनेक व्यक्तियों से परिवृत होने पर ही शोभित होते हैं, अकेले यह लोक गतागत स्वभाववाला है। आचार्य जैसा करते हैं, नहीं, तथा श्वान आदि से परिवृत नहीं।) आचार्य प्रतिरूपवान् उनके शिष्य भी वैसा ही करते हैं। आचार्य स्वयं दुष्टजिह्वा वाले होते हैं इस लोभ से स्त्रियां अभियोग-वशीकरण करती हैं। कोई हैं, वे भलां शिष्यों को कैसे शिक्षित कर सकेंगे? विष भी दे सकती है। २५८७.पडिसेहं तमजोग्गं,अण्णस्स वि दुल्लहं भवति भिक्खं। २५९३. मोएउं असमत्था, बुद्धं रुद्धं व नच्चणं कुसिया। सद्धाभंगऽचियत्तं, जिब्भादोसो अवण्णो य॥ जुवतिकमणिज्जरूवो, सो पुण सव्वे वि तो सत्तो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy