________________
तीसरा उद्देशक
१६५
धर्मकथी से कहे-राजा आदि को धर्म कहने के अवसर पर तुमको याद करेंगे। वादी से कहे-परवादी का निग्रह करने के अवसर पर तुमको भेजेंगे। क्षपक को कहे-जब प्रवचन-संघकार्य के लिए देवता के आह्वान का प्रसंग आएगा तब तुमको बुलाएंगे। नैमित्तिक तथा विद्यासिद्ध को कहे-संघकार्य के समय तुमको बुलाएंगे। रात्निक को कहे-पाक्षिक आदि जब वंदनक दातव्य होगा तब तुमको कहेंगे। १७२३. न हु गारवेण सक्का, ववहरिङ संघमज्झयारम्मि।
नासेति अगीतत्थो, अप्पाणं चेव कज्जं तु॥
संघ के गौरव के वशीभूत होकर व्यवहार को स्थापित नहीं किया जा सकता। अगीतार्थ मुनि दुर्व्यवहार करता हुआ स्वयं का तथा कार्य का नाश करता है। १७२४. नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोए सारंग।
नम्मि उ चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंग।।
अगीतार्थ समस्त लोक में सारभूत चतुरंग-मानुषत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम का नाश कर डालता है। चतुरंग का नाश हो जाने पर पुनः चतुरंग की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। १७२५. थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरेहिं।
कज्जेसु जंपियव्वं अणुयोगियगंधहत्थीहिं।।
जो स्थिरपरिपाटीयुक्त हैं, जो संविग्न तथा अनिश्रित-कारी हैं तथा जो अनुयोगधरगंधहस्ती हैं, कार्य उपस्थित होने पर उनको कहना चाहिए। १७२६. एयगुणसंपउत्तो, ववहरती संघमज्झयारम्मि।
_एयगुणविप्पमुक्के, आसायण सुमहती होति॥
इन गुणों से जो संप्रयुक्त हैं वह संघ में व्यवहार की स्थापना करता है। जो इन गुणों से विप्रयुक्त होता है और व्यवहार करता है तो सुमहती आशातना होती है। १७२७. आगाढमुसावादी, बितिय तईए य लोवितवते तु। ___ माई य पावजीवी, असुईलित्ते कणगदंडे।
आगाढ़ में अर्थात् कुलकार्य में, गणकार्य में, संघकार्य में, मृषा बोलनेवाला दूसरे और तीसरे व्रत का लोप करता है। वह मायावी पापजीवी होता है। जैसे अशुचि से लिप्त कनकदंड स्पर्श करने योग्य नहीं होता, वैसे ही ऐसा मुनि यावज्जीवन आचार्यत्व आदि पदों पर स्थापित नहीं हो सकता।
तीसरा उद्देशक समाप्त
'www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only