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पदोदभेदक-पदार्थ कथन का पारायण और तीसरी है-निरवशेष का पारायण अर्थात् संपूर्ण श्रुत का पारायण । ग्राहक अर्थात् शिष्य इन तीन परिपाटियों से शुद्ध हो जाता है- निःशेष सूत्रार्थ का पारगामी हो जाता है।
१७१०. गाहगआयरिओ ऊ, पुच्छति सो जाणि विसमठाणाणि । जति निव्वहती तहियं, ति तस्स हिययं ततो सुज्झे ॥ ग्राहक का एक अर्थ है-आचार्य । वे शिष्य को श्रुत के जिन विषमस्थानों के विषय में पूछते हैं और शिष्य यदि उनका निर्वहन करता है - उन स्थानों के हृदय को, अभिप्राय को सम्यग्ररूप से जानता है, तो वह शुद्ध है-अर्थात् व्यवहारकरण-योग्य है। १७११. अहवा गाहगो सोसो, तिहि परिवाडीहि जेण निस्सेसं ।
गतिं गुणितं अवधारितं च सो होति ववहारी ॥ अथवा ग्राहक का दूसरा अर्थ है-शिष्य । जिस शिष्य ने तीन परिपाटियों से संपूर्ण श्रुत का ग्रहण कर लिया, फिर उनका अनेक बार गुणित - अभ्यास कर लिया, फिर उनका अवधारण कर लिया, उनके हृदय को आत्मस्थ कर लिया, वह व्यवहारी होता है।
१७१२. पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो उ संविग्गे । जो निगतो वितण्णो, गुरुहिं सो होति ववहारी ॥ पारायण के समाप्त होने पर जो संविग्न आचार्य के समीप स्थिर परिपाटी हुआ है तथा गुरु द्वारा अनुज्ञात होने पर विहरण करता है, वह व्यवहारी होता है।
१७१३. पडिणीय-मंदधम्मो, जो निग्गतो अप्पणो सकम्मेहिं । नहु तं होति पमाणं, असमत्तो, देसनिग्गमणे ॥ जो मुनि प्रत्यनीक है- स्व-पर के लिए प्रतिकूल है, मंदधर्मा है, जो स्वच्छंदता से अपने कार्य के लिए विहरण करने लगता है, वह प्रमाण नहीं होता। वह देश निर्गमन के लिए असम्मत होता
१७१४. आयरियादेसऽवधारितेण अत्थेण गुणियक्खरिएण ।
तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए ॥ इसलिए संघ में उस अर्थ से व्यवहार करना चाहिए, जिस श्रुतार्थ को उसने आचार्य के कथन से अवधारित किया है, अनेक बार उसका प्रत्यावर्तन (गुणित) किया है, अक्षरित-स्थिर किया है। इस प्रकार से व्यवहार को वह अनिश्रा - राग-द्वेष से मुक्त होकर करे ।
१७१५. आयरियअणादेसा, धारिय सच्छंदबुद्धिरइएण । सच्चित्तखेत्तमीसे, जो ववहरते न सो धण्णो ॥ जो सचित्तव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार तथा मिश्रव्यवहार के में आचार्य के उपदेश के बिना, स्वच्छंद बुद्धि से चिन-कल्पित विचारों से व्यवहार करता है, वह धन्य नहीं है,
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श्रेयस्कर नहीं है।
१७१६. सो अभिमुहेति लुद्धो, संसारकडिल्लगम्मि अप्पाणं । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए य ॥
वह लुब्ध व्यक्ति उन्मार्ग की प्ररूपणा से तथा तीर्थंकर की आशातना से अपनी आत्मा को संसाररूपी अटवी के अभिमुख करता है।
सानुवाद व्यवहारभाष्य
१७१७. उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाय मग्गस्स । ववहरिउमचायंते, मासा चत्तारि भारीया ॥ उन्मार्ग की देशना तथा सही मार्ग को आच्छादित करने वाले मुनि को व्यवहार की स्थापना न कर सकने के कारण चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १७१८. गारवरहितेण तहिं ववहरियव्वं तु संघमज्झम्मि ।
को पुण गारव इणमो, परिवारादी मुणेयव्वो । संघ में गौरवरहित होकर व्यवहार करना चाहिए। शिष्य ने पूछा- गौरव क्या है? आचार्य ने कहा- वह परिवार आदि विषयक होता है।
१७१९. परिवार इड्डि- धम्मकहि वादि-खमगो तहेव नेमित्ती । विज्जा राइणियाए, गारवो त्ति अट्ठहा होति । गौरव आठ प्रकार का है
१. परिवार का गौरव
२. ऋद्धि का गौरव
३. धर्मकथी होने का गौरव
४. वादी होने का गौरव
५. क्षपक- तपस्वी होने का गौरव
६. नैमित्तिक होने का गौरव
७. विद्या का गौरव
८. रत्नाधिक होने का गौरव ।
१७२०. बहुपरिवार महिड्डी, निक्खंतो वावि धम्मकहि वादी ।
जदि गारवेण जंपेज्ज, अगीतो भण्णती इणमा ॥
यदि अगीतार्थ मुनि गौरव के वशीभूत होकर यह कहता है। कि मैं बहुपरिवारी हूं, मैंने महर्द्धिक अवस्था में अभिनिष्क्रमण किया है, मैं धर्मकथी हूं, मैं वादी हूं आदि (इसलिए मुझे प्रमाण माना जाए तो उसे इस प्रकार कहना चाहिए१७२१. जत्थ उ परिवारेणं, पयोयणं तत्थ भण्णिहह तुज्झे । इड्डीमंतेसु तधा, धम्मकहा वादिकज्जे वा ॥ १७२२. पवयणकज्जे खमगो, नेमित्ती चैव विज्जसिद्धे य ।
रायणिए वंदणगं, जहि दायव्वं तहि भणेज्जा ॥ जो परिवार का गौरव करता है उसे कहना चाहिए-आर्य ! जहां कहीं परिवार से प्रयोजन होगा वहां हम तुमको बुलायेंगे। इसी प्रकार ऋद्धि का गौरव करने वाले को भी समझाए। तथा
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