________________
३५४
३९३१. एवं
परिवड्डिया । इमे पुणो ॥
पासत्थमादी तु, कालेण पेल्लेज्जा माइठाणेहिं, सोच्चादी ते इसी प्रकार काल से परिवर्धित होकर पार्श्वस्थ आदि उन संविग्न मुनियों को मायास्थान से प्रेरित करते हैं। (उन्हें ढंक देते हैं।) वे पार्श्वस्थ आदि कैसे हैं- श्रुत्वा उपेत्य आदि । ३९३२. सोच्चाऽउट्टी अणापुच्छा, मायापुच्छाऽजतट्ठिए । अजयट्ठिय भंडते, ततिए समणुण्णया दोन्हं ॥ श्रुत्वा उपेत्य, अनापृच्छा, मायापृच्छा, यतस्थित, अयतस्थित, भंडन करते हुए, तृतीय समनुज्ञता, दोनों की ....... । (व्याख्या आगे).
३९३३. गुरुणो
सुंदरक्खेत्तं, साहंतं सोच्च पाहुणो । नएज्ज अप्पणो गच्छं, एस आउट्टिया ठितो ॥ क्षेत्र प्रत्युपेक्षक आकर अपने गुरु को कहते हैं कि अमुक क्षेत्र सुंदर है। यह सुनकर प्राघूर्णक मुनि अपने गच्छ को वहां ले जाता है। यह 'श्रुत्वा उपेत्य स्थित' -सुनकर वहां जाकर स्थित होना कहलाता है।
३९३४. पेहितमपेहितं वा, ठायति अन्नो अपुच्छिउं खेत्तं । गोवालवच्छवाले, पुच्छति अन्नो वि दुप्पुच्छी ॥ अन्य कोई 'यह क्षेत्र प्रत्युपेक्षित है अथवा अप्रत्युपेक्षित' - यह पूछे बिना ही वहां रह जाता है अथवा कोई दुः पृच्छी- अर्थात् गोपाल, वत्सपाल आदि जो क्षेत्र के विषय मे कुछ भी नहीं जानते, उन्हें पूछता है कि यह क्षेत्र प्रत्युक्षेपित है अथवा नहीं।
३९३५.अविधिट्ठिता तु दोवी, ते ततिओ पुच्छिउ विहीय ठितो । सारूवियमादि काउ, बेंतऽण्णेहिं न पेहियं ॥ ३९३६. तं तु वीसरियं तेसिं, पउत्था वावि ते भवे । खेत्तिओ य तहिं पत्तो, तत्थिमा होति मग्गणा ॥ ये दोनों (श्रुत्वा उपेत्य स्थित तथा अनापृच्छा और मायापूर्वक पृच्छा से स्थित) अविधि से स्थित हैं। तीसरा सारूपिक आदि को पूछकर स्थित है। जो यथार्थ को नहीं जानते वे कहते हैं-दूसरों ने इस क्षेत्र का प्रत्युपेक्षण नहीं किया । अथवा जिन्होंने अनुज्ञापित किया था, उसकी विस्मृति हो गई अथवा अनुज्ञापित करने वाले देशांतर चले गए इस स्थिति में जिसने पहले क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा की वह क्षेत्रिक सूत्रप्राप्त है और उसकी मार्गणा यह है ।
३९३७. आउट्टितो ठितो जो उ, तस्स नामं पि नेच्छिमो ।
अणापुच्छिय दुप्पुच्छी भंडते खेत्तकारणा ॥ वे कहते हैं-जो उपेत्य स्थित हैं हम उनका नाम लेना भी नहीं चाहते। जो अनापृच्छी और दुःपृच्छी हैं वे दोनों क्षेत्र के लिए कलह करते हैं।
Jain Education International
सानुवाद व्यवहारभाष्य ३९३८. अहवा दो वि भंडते, जयणाए ठितेण ते । खेत्तिओ दो वि जेत्तूण, भत्तं देति न उग्गहं ॥ अथवा ये दोनों यतनापूर्वक स्थित मुनि के साथ कलह करते हैं। क्षेत्रिक मुनि दोनों को सूत्रोक्त विधि से जीतकर उनको भक्त देता है, अवग्रह नहीं ।
३९३९. ततियाण सयं सोच्चा सड्डादीए व पुच्छिउं ।
होति साधारणं खेत्तं, दिट्ठतो खमएण तू ॥ तीसरे प्रकार के मुनि जो यतनापूर्वक स्थित हैं, उनके विषय में क्षेत्रिक स्वयं सुनकर अथवा श्रावकों आदि को पूछकर, उनके स्वरूप को जान जाता है तो वह क्षेत्र साधारण अर्थात् दोनों का होता है। यहां क्षपक का दृष्टांत है।
३९४०. सुद्धं गवेसमाणो, पायसखमगो जधा भवे सुद्धो ।
तह पुच्छिउ ठायंता सुद्धा उ भवे असदभावा ॥ जैसे शुद्ध पायस (क्षीरान्न) की गवेषणा करने वाला पायसक्षपक शुद्ध होता है वैसे ही पृच्छा कर स्थित होने वाले श्रमण असठभाव के कारण शुद्ध होते हैं। ३९४१. अतिसंथरणे तेसिं, उवसंपन्ना उ खेत्ततो इतरे ।
अविधिट्ठिया उ दो वी, अहव इमा मग्गणा अन्ना ॥ अतिसंस्तरण होने पर क्षेत्रिकों से इतर अर्थात् यतनापूर्वक स्थित तथा अविधिपूर्वक स्थित - दोनों प्रकार के मुनि-अथवा इनकी अन्य मार्गणा यह है
३९४२. पेहेऊणं खेत्तं, केई ण्हाणादि गंतु ओसरणं ।
पुच्छंताण कर्धेती, अमुगत्थ वयं तु गच्छामो ॥ कुछेक मुनि वर्षारात्रयोग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर स्नान आदि समवसरण में जाकर पूछने वालों को कहते हैं कि हम अमुक क्षेत्र में वर्षावास के लिए जा रहे हैं। ३९४३.घोसणय सोच्च सण्णिस्स,
पेच्छणा पुव्वमतिगते पच्छा।
पुव्वट्ठिते परिणते,
पच्छ भणते ण से इच्छा ॥ घोषणा को सुनकर, संज्ञीवर्ग का प्रेक्षण, पूर्व अतिगत से पृच्छा, पूर्वस्थित में परिणत, अत्र उसकी इच्छा नहीं..... ( व्याख्या अगली गाथाओं में ।)
३९४४. बाहुल्ला संजताणं तु, उवग्गो यावि पाउसे।
ठिया मो अमुगे खेत्ते, घोसणऽण्णोण्णसाहणं ॥ संतों की बहुलता है । प्रावृट्काल उपाग्र- अतिनिकट है। स्नान आदि समवसरण में घोषणा करते हैं, परस्पर एक दूसरे को कहते हैं कि हम अमुक क्षेत्र में स्थित होंगे।
३९४५. विभज्जंती च ते पत्ता हाणादीसु समागमो । पहुप्पंते य नो कालाऽऽसन्ना घोसणयं ततो ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org