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दसवां उद्देशक
पैर, आंख, नाक, हाथ, कान आदि से विकल हों और एक में अंजुगित तो अंजुगित जाए। दोनों में जुंगित हों तो जिसमें पाद जुंगित हों वे ठहरे और शेष जाएं। इसी प्रकार श्रमणियों के लिए यही विधि है। अंतर इतना ही है कि तरुणी और वृद्ध साध्वियों में तरुण साध्वियां रहे और वृद्ध साध्वियां गमन करें। ३९१९. समणाण संजतीण य, समणी अच्छंति नेंति समणा उ । संजोगे विय बहुसो, अप्पाबहुयं असंथरणे ॥ श्रमण और श्रमणियों का एकत्र स्थान में संस्तरण न होता हो तो श्रमण वहां से चले जाएं। दोनों की संयुक्तता में बहुत अधिक हो जाने पर, असंस्तरण की स्थिति में अल्प- बहुत्व के आधार पर निर्गमन का निर्णय करे। (इसी प्रकार यदि श्रमण जुंगित हों और श्रमणियां वृद्ध हों तो जुंगित वहां रहे और श्रमणियां निर्गमन करे ।)
३९२०. एमेव भत्तसंतुट्ठा, तस्सालंभम्मि अप्पभू णिति । जुंगितमादीएसु य, वयंति खेत्तीण जं तेसिं ॥ क्षेत्रिक और अक्षेत्रिक-इन दोनों का यदि संस्तरण होता हो तो दोनों रहें। अक्षेत्रिक यदि भक्तसंतुष्ट हों तो वे रहें और यदि भक्त की प्राप्ति न होती हो तो अप्रभु-अक्षेत्रिक वहां से निगर्मन कर दें। यदि अक्षेत्रिक जुंगित आदि हों तो क्षेत्रिक वहां से निर्गत हो जाएं। जुंगित जिसके संबंधी हों उनका वह क्षेत्र आभाव्य नहीं होता ।
३९२१. पत्ताण अणुण्णवणा, सारूविय सिद्धपुत्त सण्णी य भोइय मयहर ण्हाविय, निवेयण दुगाउयाइं च ॥ ३९२२. सग्गाम सण्णि असती, पडिवसभे पल्लिए व गंतूणं ।
अम्हं रुइयं खेत्तं, नायं खु करेह अन्नेसिं ॥ वर्षारात्र के क्षेत्र को प्राप्त कर इन व्यक्तियों को अनुज्ञापना करनी चाहिए - सारूपिक, सिद्धपुत्र, संज्ञी, भोजिक, महत्तर, नापित-कि हम यहां वर्षारात्र बिताने आए हैं। यदि स्वग्राम में संज्ञी - श्रावक आदि न हो तो दो गव्यूति की दूरी तक जाकर प्रतिवृषभ को अथवा पल्ली में जाकर श्रावक को यह निवेदन करे कि हमें यह क्षेत्र रुचित- पसंद है। तुम यह बात दूसरों को ज्ञात कराओ।
३९२३. जतणाए समणाणं, अणुण्णवेत्ता वसंति खेत्तबहिं ।
वासावासद्वाणं, आसाढे सुद्धदसमीए ॥ सारूपक आदि को अनुज्ञापित कर यतनापूर्वक वर्षारात्र के क्षेत्र के बहिर्भाग में रहते हैं। आषाढ़ शुक्ला दसमी के दिन वर्षावास स्थान में प्रवेश करते हैं।
३९२४. सारूवियादि जतणा, अन्नेसिं वावि साहए बाहि। बाहिं वावि ठिया संता, पायोग्गं तत्थ गेण्हंति ॥ सारूपक आदि तथा अन्यों को अनुज्ञापित कर गांव के
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बाहर रहते हुए जो यतना करनी है वह यह है-बाहर रहते हुए भी मुनि वर्षा प्रायोग्य उपधि ग्रहण करते हैं।
३९२५. दोह जतो एगस्सा, निप्फज्जति तत्तियं बहिठिता तु । दुगुणपमाणवासुवहि, संथरि पल्लिं च वज्जेती ॥ संयोगवश एक ही मुनि को दो मुनियों के लिए पर्याप्त उपधि निष्पन्न हो जाती है, उसकी अपेक्षा से बहिस्थित मुनि वर्षायोग्य द्विगुण जितनी उपधि का उत्पादन करे तथा वह पर्याप्त हो तो पल्ली आदि में न जाए।
३९२६. उच्चारमत्तगादी,
छारादी चेव वासपाउग्गं । संथार - फलगसेज्जा, तत्थ ठिता चेवऽणुण्णवणा ॥ गांव के बाहर स्थित ही मुनि वर्षाप्रायोग्य उच्चार मात्रक आदि, क्षार आदि तथा संस्तारक, फलक, शय्या आदि की अनुज्ञापना करते हैं।
३९२७. पुन्नो य तेसिं तहि मासकप्पे,
अन्नं च दूरे खलु वासजोग्गं । ठायंति तो अंतरपल्लियाए जं,
एसकाले य न भुंजिहिंती ॥ गावं के बाहर रहते हुए मासकल्प पूरा हो गया और वर्षायोग्य क्षेत्र में जाने का दिन दूर है तो वे उस अंतरपल्ली में रहते हैं जहां के आहार पानी का वे भविष्य में उपयोग नहीं करेंगे।
३९२८. संविग्गबहुलकाले, एसा मेरा पुरा तु आसी य । इयरबहुले उ संपति, पविसंति अणागतं चेव ॥ पहले संविग्नबहुलकाल में यह मेरा-मर्यादा थी । वर्तमान में इतरबहुल अर्थात् पार्श्वस्थादि बहुलकाल में अनागत ही (बिना अनुज्ञापना किए ) प्रवेश कर जाते हैं। ३९२९. पेहिते
नहु अन्नेहिं, पविसंताऽऽयतट्ठिया । इतरे कालमासज्ज, पेल्लेज्ज परिवड्ढिता ॥ दूसरों द्वारा प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में मोक्षार्थी मुनि प्रवेश नहीं * करते । इतर अर्थात् पार्श्वस्थ मुनि समय पाकर परिवर्द्धित होकर अपर प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में जाने की प्रेरणा देते हैं। ३९३०. रुण्णं तगराहारं वएहि कुसुमंसुए उज्जाणपडिसवत्तीहि, वत्थूलाहिं
मुयंतेहिं । ठतीहिं ||
(उपरोक्त श्लोक के भावार्थ को स्पष्ट करने वाला यह कल्पित उदाहरण है।) तगराहार नगरी में आम्र का उद्यान था । उसमें बबूल के वृक्ष भी थे । उनको काटकर उद्यान के चारों ओर उसकी बाड़ कर दी। धीरे-धीरे बबूल के वृक्ष बड़े हुए और उन्होंने सारे आम्रोद्यान को ढंक दिया। आम्रोद्यान की शत्रुभूत बबूल की वृत्ति को देखकर फूलों के मिष से आम्र अश्रुविमोचन करते हुए रुदन करने लगे।
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