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________________ ३५२ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३. पश्चात् निर्गत, पूर्व प्रास। पहुंच जाता है, फिर भी उसे क्षेत्र का लाभ नहीं होता। ४. पश्चात् निर्गत, पश्चात् प्राप्त । ३९१२. समयं पि पत्थियाणं, सभावसिग्धगतिणो भवे खेत्तं। ३९०५. पढमगभंगे इणमो, तु मग्गणा पुव्वऽणुण्णवे जदि तु। एमेव य आसन्ने, दूरद्धाणीण जो एती।। तो तेसि होति खेत्तं, अह पुण अच्छंति दप्पेण ॥ साथ-साथ प्रस्थित होने पर भी जो स्वाभाविक शीघ्रगति इन चारों भंगों में प्रथम भंग की मार्गणा यह है। यदि दोनों से क्षेत्र को प्राप्त कर लेता है, वह क्षेत्र उसका होता है तथा जो साथ निर्गत हैं और साथ ही क्षेत्र को प्राप्त हैं और यदि समकं निकट मार्ग से अथवा दूर मार्ग से पहले वहां पहुंचते हैं, वह क्षेत्र अनुज्ञापन है तो दोनों का वह साधारण क्षेत्र है। यदि कोई दर्प से- उनका होता है। निष्कारण वहां रहता है तो जिसके पहले अनुज्ञापित किया है वह ३९१३. अहवा समयं पत्ता, समयं चेवं अणुण्णवित दोहिं। उसका क्षेत्र होता है। साधारणं तु तेसिं, दोण्ह वि वग्गाण तं होति। ३९०६. खेत्तमतिगया मो त्ति, वीसत्थ जदि अच्छहे। अथवा दोनों वर्ग साथ-साथ आए हैं, दोनों ने साथ-साथ ___ पच्छा गतऽणुण्णवए, तेसिं खेत्तं वियाहितं॥ क्षेत्र की अनुज्ञापना की है तो उन दोनों वर्गों का वह क्षेत्र सामान्य हम क्षेत्र को पहले प्राप्त हो गए हैं, ऐसा सोचकर विश्वस्त होता है। हो जाते हैं और अनुज्ञापना के लिए प्रयत्न नहीं करते, तब यदि ३९१४. अधवा समयं दोन्नि वि, सीमं पत्ता तु तत्थ जे पुव्विं। पश्चाद् आगत पहले अनुज्ञापना कर लेते हैं तो क्षेत्र उनका होता अणुजाणाहे तेसिं, न जे उ दप्पेण अच्छंति ।। है, ऐसा कहा है। अथवा दोनों वर्ग एक साथ सीमा को प्राप्त होते हैं, उनमें जो ३९०७. गेलण्णवाउलाणं तु, खेत्तमन्नस्स नो भवे। पहले अनुज्ञापना करता है, वह क्षेत्र उसका होता है। जो निसिद्धो खमओ चेव, तेण तस्स न लब्भते॥ दर्प-निष्कारण वहां रहते हैं, उनका वह क्षेत्र नहीं होता। ग्लान और आकुल का होता है क्षेत्र, दूसरे का नहीं, चाहे ३९१५. उज्जाणगामदारे, वसधिं पत्ताण मग्गणा एवं। फिर समक प्राप्त है अथवा पहले अनुज्ञापित है। क्षपक को क्षेत्र समयमणुण्णे साधारणं तु न लभंति जे पच्छा ।। प्रत्युपेक्षण के लिए भेजना निषिद्ध है। उसके द्वारा अनुज्ञापित उद्यान, ग्रामद्वार अथवा वसति को जो साथ-साथ प्राप्त क्षेत्र उनको प्राप्त नहीं होता। करते हैं उनके लिए मार्गणा इस प्रकार है। यदि वे साथ-साथ ३९०८. पुव्वविणिग्गता पच्छा, पविठ्ठा पच्छ निग्गता। अनुज्ञापना करते हैं तो वह क्षेत्र उनका सामान्य होता है। जो पुव्वं कयरेसि खेत्तं, तत्थ इमा मग्गणा होति।। पश्चाद् अनुज्ञापना करते हैं उनका वह क्षेत्र नहीं होता। पूर्व निर्गत परंतु पश्चात् क्षेत्र में प्रविष्ट, पश्चात् निर्गत परंतु ३९१६. ते पुण दोण्णी वग्गा,गणि-आयरियाण होज्ज दोण्हं तु। पूर्व क्षेत्र में प्रविष्ट, तो क्षेत्र किसका होगा? इस विषय में मार्गणा - गणिणं व होज्ज दोण्हं, आयरियाणं व दोण्हं तु॥ यह है वे दो वर्गगणी (वृषभ) तथा आचार्य के हो सकते हैं अथवा ३९०९. गेलन्नादिकज्जेहि, पच्छा इंताण होति खेत्तं तु। दोनों वर्ग गणी के अथवा दोनों वर्ग आचार्य के हो सकते हैं। निक्कारणं ठिता ऊ पच्छा इंता न उ लभंति॥ ३९१७. अच्छंति संथरे सव्वे, गणी णीति असंथरे। यदि पूर्व निर्गत हैं किंतु ग्लानत्व आदि कारणों से पश्चात् जत्थ तुल्ला भवे दो वी, तत्थिमा होति मग्गणा।। क्षेत्र में पहुंचे हैं, तो क्षेत्र उनका होता है। जो निष्कारण यहां-वहां यदि वह क्षेत्र सबके लिए संस्तरण योग्य हो तो सभी वहां रहकर पश्चात् आते हैं, उन्हें क्षेत्र प्राप्त नहीं होता। रहते हैं। यदि सब का संस्तरण न हो सके तो गणी (वृषभ) वहां ३९१०. पच्छा विणिग्गतो वि हु, दूरासन्ना समा व अद्धाणे। से चले जाते हैं। यदि दोनों वर्ग समान हों अर्थात् दोनों गणी के सिग्घगती तु सभावा, पुव्वं पत्तो लभति खेत्तं॥ वर्ग हों या दोनों आचार्य के वर्ग हों तो यह मार्गणा है पश्चात् विनिर्गत है, चाहे दूर, चाहे नजदीक और चाहे ३९१८.निप्फण्ण तरुण सेहे,जुंगित पादच्छि-नास-कर-कन्ना। समान मार्ग हो, वे अपनी स्वाभाविक शीघ्रगति से क्षेत्र को पहले एमेव संजतीणं, नवरं वुड्ढीसु नाणत्तं। प्राप्त कर लेते हैं तो क्षेत्र का लाभ उनको होता है। यदि एक का शिष्य परिवार निष्पन्न हो और एक का ३९११. अह पुण असुद्धभावो, गतिभेदं काउ वच्चती पुरतो। अनिष्पन्न हो तो निष्पन्न वाला वहां से चला जाए। दोनों के __ मा एते गच्छंती, पुरतो ताहे य न लभंती॥ परिवार निष्पन्न हों, एक का तरुण परिवार हो और एक का वृद्ध जो अशुद्धभावपूर्वक गतिभेद कर (गमन की गति को हो तो तरुण परिवार वाला चला जाए। एक में शैक्ष और एक में बढ़ाकर) यह सोचता है कि वे आगे न चले जाएं, वह स्वयं पहले चिरप्रव्रजित तो चिरप्रव्रजित जाए। एक में जुंगित शरीरावयवोंJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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