SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां उद्देशक सचित्त का ग्रहण करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३८९२. उडुबद्धे विहरता, वासाजोग्गं तु पेहए खेत्तं । वत्थव्वा य गता वा, उव्वेक्खित्ता नियत्ता वा ॥ ऋतुबद्धकाल में विहरण करते हुए वर्षायोग्य क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करते हैं। वास्तव्य साधु क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करने जाते हैं और प्रत्युपेक्षा कर निवृत्त हो जाते हैं । ३८९३. आलोएंतो सोउं, साहंते गंतु अप्पणो गुरुणो । कहणम्मि होति मासो, गताण तेसिं न तं खेत्तं ॥ वे आकर आचार्य के पास आलोचना करते हैं। क्षेत्र के गुण-दोष बताते हैं। वहां समागत अन्य मुनि यह सुनकर अपने आचार्य को कहते हैं। कथन करने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां जाने पर वह उनका आभवत् क्षेत्र नहीं होता । ३८९४. सामत्थण निज्जविते, पदभेदे चेव पंथ पत्ते य। पणुवीसादी गुरुगा, गणिणोऽगहणेण वा जस्स ॥ यह सुनकर आचार्य यदि वहां जाने के लिए सामत्थणसंप्रधारण करते हैं तो प्रायश्चित है २५ दिन का। यदि निर्याचित-वहां जाने का दृढ़ निश्चय कर लेते हैं तो एक लघुमास का, पदभेद - चल पड़ते हैं तो एक गुरुमास का, पथ में चलने पर चार लघुमास का तथा क्षेत्र को प्राप्त हो जाने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त आचार्य को अथवा उसको जिसके आग्रह से वे जाते हैं। ३८९५. एसा अविधी भणिता, तम्हा एवं न तत्थ गंतव्वं । गंतव्वं विधीए तु, पडिलेहेऊण खेत्तं ॥ जो पूर्व में कही गई वह अविधि है। इसलिए उस विधि से वहां नहीं जाना चाहिए । विधिपूर्वक क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा कर वहां जाना चाहिए। ३८९६. खेत्तपडिलेहणविधी, पढमुद्देसम्मि वण्णिता कप्पे । स च्चेव इहुद्देसे, खेत्तविहाणम्मि नाणत्तं ॥ कल्पाध्ययन के प्रथम उद्देशक में क्षेत्रप्रत्युपेक्षण की विधि कही गई है। प्रस्तुत दसवें उद्देशक में भी वही विधि ज्ञातव्य है । विशेष इतना ही है कि क्षेत्रविधान अर्थात् क्षेत्र के भेदकथन में नानात्व है। ३८९७. चतुग्गुणोववेयं खेत्तं होति जहन्नगं । तेरसगुणमुक्कोसं, दोन्हं मज्झम्मि मज्झिमं ॥ चार गुणों से युक्त क्षेत्र जघन्य, तेरह गुणों से युक्त क्षेत्र उत्कृष्ट तथा इन दोनों के मध्यवर्ती गुणों से युक्त क्षेत्र मध्यम होता है। ३८९८. महती विहारभूमि, वियारभूमि य सुलभवित्तीय । सुलभा वसधी य जहिं, जहण्णगं वासखेत्तं तु ॥ जहां विहारभूमी - भिक्षापरिभ्रमणभूमी तथा विचारभूमी - Jain Education International ३५१ शौचार्थभूमी बड़ी हो, जहां भिक्षा सुलभ हो, जहां वसति सुलभ हो वह जघन्य वर्षाक्षेत्र है। ३८९९. चिक्खल्ल पाण थंडिल, वसधी गोरस जणाउले वेज्जे । ओसधनिययाधिपती, पासंडा भिक्ख सज्झाए ॥ उत्कृष्ट वर्षाक्षेत्र वह है जिसमें ये तेरह गुण हों१. प्रायः कर्दमरहित २ सम्मूर्च्छिम प्राणियों से रहित ३. उपयुक्त स्थंडिल की प्राप्ति ४. वसति की प्राप्ति ५. गोरस की उपलब्धि ६ जनाकुल ७. वैद्यों की प्राप्ति ८. औषधि प्राप्ति की सुलभता । ९. कुटुंबियों के प्रचुर धान्यनिचय । १०. राजा की अनुकूलता। ११. पाषंडों की सहृदयता । १२. भिक्षा की सुलभता १३. स्वाध्याय की अनुकूलता । ३९००. खेत्तपडिलेहणविधी, खेत्तगुणा चेव वण्णिता एते । पेहेयव्वं खेत्तं, वासाजोग्गं तु जं कालं ॥ क्षेत्रप्रत्युपेक्षण विधि तथा क्षेत्रगुणों का वर्णन किया गया है । किस काल में वर्षायोग्य क्षेत्र का प्रत्युपेक्षण करना चाहिए, उसका निरूपण यह है ३९०१. खेत्ताण अणुण्णवणा, जेट्ठामूलस्स सुद्धपाडिवए । अधिगरणोमाणो मो, मणसंतावो महा होति ॥ क्षेत्रों की अनुज्ञापना ज्येष्ठामूल मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को होती है क्योंकि वहां कोई आए हुए हों (आने वाले हों तो उनके साथ कलह हो सकता है, अपमान और मनः संताप हो सकता है। ३९०२. एतेहि कारणेहिं, अणागयं चेव होतऽणुण्णवणा । निग्गम पवेसणम्मिय, पेसंताणं विधिं वोच्छं ।। इन सब कारणों से अनागत में ही अनुज्ञापना होती है। जो क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा करने वाले हैं उनके निष्क्रमण और प्रवेश की विधि के विषय में कहूंगा। ३९०३. केई पुव्वं पच्छा, व निग्गता पुव्वमतिगता खेत्तं । समसीमं तू पत्ताण, मग्गणा तत्थिमा होति ॥ कुछेक मुनि क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा के लिए पहले निर्गत हैं और कुछेक मुनि पश्चात् निर्गत हैं, निकले हैं। कुछ क्षेत्र को पहले प्राप्त हो गए हैं और कुछ साथ-साथ सीमा को प्राप्त हुए हैं। उस स्थिति में यह मार्गणा होती है। ३९०४. पुव्वं विणिग्गतो पुव्वमतिगतो पुव्वनिग्गतो पच्छा। पच्छा निग्गत पुव्वं तु अतिगतो दो वि पच्छा वा ।। इस गाथा में प्रतिपादित चतुर्भंगी १. पूर्व विनिर्गत और पूर्व ही साथ-साथ प्राप्त । २. पूर्व निर्गत, पश्चात् प्राप्त । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy