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सानुवाद व्यवहारभाष्य फिर भी भक्तप्रत्याख्याता तथा परिचारक-दोनों के प्रवर्धमान संस्तारक आदि पूर्वक्रम से पल्यंक पर बिछाए। निर्जरा होती है। गच्छ का यही अर्थ है कि परस्पर उपकार से ४३४५. पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि निग्गमणं। दोनों के निर्जरा हो।
सयमेव करेति सहू, असहुस्स करेंति अन्ने उ॥ ४३३८. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। यदि भक्तप्रत्याख्याता समर्थ हो तो वह स्वयं अपने
अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण॥ उपकरणों का प्रत्युपेक्षण करता है, संस्तारक बिछाता है, पानक किसी भी संयमयोग में लगा हुआ मुनि प्रतिसमय अर्थात् पीता है, उद्वर्तन आदि तथा गमन-निर्गमन कर लेता है। यदि वह क्षण-क्षण में असंख्यभवोपार्जित कर्म का क्षय करता है। असमर्थ हो तो दूसरे मुनि ये सारी क्रियाएं कराते हैं। स्वाध्याय में लगा हुआ मुनि विशेषरूप से कर्मक्षय करता है। ४३४६. कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणं च से कुणति। ४३३९. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संचारे॥
अन्नतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेण।। जो निर्यापक शरीर से उपचित तथा बलवान् है वह उस किसी भी संयमयोग में लगा हुआ मुनि क्षण-क्षण में भक्तप्रत्याख्याता को निष्क्रमण और प्रवेशन कराता है। यदि वह असंख्यभवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। कायोत्सर्ग में लगा। इसे सहन नहीं कर पाता तो उसे संस्तारगत ही संचरण करवाता हुआ वह मुनि विशेषरूप से कर्मक्षय करता है। ४३४०. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। ४३४७. संथारो मउओ तस्स, समाधिहेउं तु होति कातव्वो।
अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण॥ तह वि य अविसहमाणे, समाहिहेउं उदाहरणं। किसी भी संयमयोग में प्रवृत्त मुनि क्षण-क्षण में असंख्य
भक्तप्रत्याख्याता की समाधि के लिए उसका संस्तारक मृदु भवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। वैयावृत्त्य में विशेष कर्मक्षय करना चाहिए उसको भी सहन न करने पर, उसकी समाधि के करता है।
लिए यह उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। ४३४१. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। ४३४८. धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसनिसेविते परमरम्मे। अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि।।
धण्णा सिलातलगता, निरावयक्खा निवज्जंति॥ किसी भी संयमयोग में प्रवृत्त मुनि क्षण-क्षण में मुने! देखो, धीरपुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त, सत्पुरुषों द्वारा असंख्यभवोपार्जित कर्मों का क्षय करता है। उत्तमार्थ में प्रवृत्त निसेवित अभ्युद्यतमरण को स्वीकार कर परमरम्य शिलातल पर मुनि विशेष कर्मक्षय करता है।
स्थित हैं और वे निरपेक्ष होकर उस मरण की साधना कर रहे हैं, ४३४२. संथारो उत्तिमढे, भूमिसिलाफलगमादिं नातव्वे। वे धन्य हैं।
संथारपट्टमादी, दुगचीरा तू बहू वावि॥ ४३४९. जदि ताव सावयाकुल,गिरि-कंदर विसमकडगदुग्गेसु। उत्तमार्थ में व्यापृत मुनि का संस्तारक भूमी, शिला, फलक
साधेति उत्तिमढे, धितिधणियसहायगा धीरा॥ आदि ज्ञातव्य हैं। फलक का संस्तारक एकांगिक हो। उसके ४३५०. किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं। अभाव में दो फलकात्मक अथवा तीन फलकात्मक हो सकता है।
परलोइए न सक्का , साहेउं उत्तमो अट्ठो॥ संस्तारक का उत्तरपट्ट एक, दो अथवा अनेक भी हो सकते हैं।
धृति जिनकी अत्यंत सहायक है वे धृतिधनिक-सहायक ४३४३. तह वि य संथरमाणे, कुसमादी जिंतु अझुसिरतणाई। धीर मुनि श्वापदाकुल गिरिकंदराओं में विषमकटकों तथा दुर्गों में
तेसऽसति असंथरणे, झुसिरतणाई ततो पच्छो॥ उत्तमार्थ की साधना करते हैं। तो फिर क्या अनगारों की सहायता फिर भी यदि उसे असमाधि हो तो अशुषिर कुश आदि से परलोकार्थी मुनि अन्योन्यसंग्रहबल से उत्तमार्थ की साधना तृणों का संस्तारक करे। उनके अभाव में यदि असमाधि हो तो नहीं कर सकता? पश्चात् शुषिरतृणों का संस्तारक करे।
४३५१. जिणवयणमप्पमेयं, मधुरं कण्णाहुतिं सुणेताणं। ४३४४. कोयवं पावारग नवय, तूलि आलिंगिणी य भूमीए।
सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोदधिं तरिउं॥ एमेव अणहियासे, संथारगमादि पल्लंके। अप्रमेय मधुर जिनवचनों को कर्णाहति की भांति सुनकर
यदि तृण-संस्तारक से समाधि न रहे तो कोयव-रूई से साधुओं के मध्य स्थित मुनि संसार समुद्र को तैरने के लिए भरे वस्त्र का, प्रावरण का, नवत-रूई के आस्तरण का संस्तारक समर्थ होते हैं। करे। दोनों पार्श्व में तूली आलिंगनी (छोटा गाल का तकिया?) ४३५२. सव्वे सव्वद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु। रखे। यह सारा भूमी पर करे। इससे भी यदि समाधि न हो तो
सव्वगुरु सव्वमहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता।।
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