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सामान्य जनता के छह मास का होता है। २७०२. जे जत्थ अधिगया खलु,
अस्सा दब्भक्खमादिया रण्णा। तेसि भरणम्मि ऊणं,
भुंजति भोए अडंडादी॥ राजा ने जिन महाअश्वाधिपतियों आदि को अश्वों के भरण-पोषण के लिए अधिकृत किया, वे उनका यदि न्यून भरण पोषण भी करते हैं तो भी वे दंडरहित भोगों का उपभोग करते हैं। (यह दृष्टांत है। इसकी दाष्र्टान्तिकयोजना इस प्रकार है-) २७०३. इय पुव्वगताधीते,
बाहु सनामेव तं मिणे पच्छा। पियति त्ति व अत्थपदे,
मिणति त्ति व दो वि अविरुद्धा॥ भद्रबाहु ने पूर्वगत का अध्ययन कर लिया। अर्थात् उसे अपने नाम की भांति परिचित कर लिया। पश्चात् महाप्राणध्यान के बल से उसका परावर्तन कर लेते थे। वे अपनी इच्छा से उस ध्यान से निवर्तित नहीं हुए, बहुतकाल तक उसी में संलग्न रहे। फिर भी वे प्रायश्चित्ताह नहीं हुए। महापान शब्द की दो व्युत्तियां हैं पिबतीति वा मिनोतीति वा। दोनों अविरुद्ध हैं, एकार्थक हैं।' २७०४. वा अंतो गणि व गणो, वक्खेवो मा हु होज्ज अग्गहणं।
वसभेहि परिक्खित्तो, उ अच्छते कारणे तेहिं।।
यदि आचार्य वसति के भीतर रहते हैं तो गण बाहर रहता है और यदि गण भीतर रहता है तो गणी बाहर रहते हैं। क्योंकि उनके विद्या आदि के परावर्तन में कोई व्याक्षेप न हो, अयोग्य शिष्य आचार्य के परावर्तन को सुनकर ग्रहण न कर ले-इन कारणों से आचार्य वसति के अंदर या बाहर मुनियों से विलग होकर अकेले रहते हैं। २७०५. पंचेते अतिसेसा, आयरिए होंति दोण्णि उ गणिस्स।
भिक्खुस्स कारणम्मि उ, अतिसेसा पंच वी भणिया।।
आचार्य के पांच अतिशय होते हैं, तथा गणीगणावच्छेदक के दो अतिशय होते हैं। कारण में भिक्षु के लिए भी पांचों अतिशय कहे गए हैं। २७०६. जे सुत्ते अतिसेसा, आयरिए अत्थतो व जे भणिया।
ते कज्जे जतसेवी, भिक्खु वि न बाउसी होति।।
सूत्र में जो पांच अतिशेष आचार्य के लिए कहे गए हैं तथा जो पांच अर्थतः अतिशेष हैं इन दसों अतिशयों का प्रयोजनवश जयसेवी-यतनापूर्वक उपभोग करने वाला भिक्षु बकुश नहीं १. पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं च महापानमिति-जहां स्थित है, वहां अर्थपदों को पीना, यह पान है। वह पान
सानुवाद व्यवहारभाष्य होता। २७०७. बालाऽसहुमतरतं, सुइवादिं पप्प इड्डिवुहूं वा।
दसवि भइयातिसेसा, भिक्खुस्स जहक्कम कज्जे॥ बाल, असह, ग्लान, शुचिवादी, ऋद्धिवृद्ध (प्रव्रजित राजा आदि)-इन भिक्षुओं के प्रति प्रयोजन उत्पन्न होने पर यथाक्रम दशों अतिशयों का वैकल्पिक प्रयोग हो सकता है। २७०८. कप्पति गणिणो वासो, बहिया एगस्स अतिपसंगण।
मा अगडसुता वीसुं, वसेज्ज अह सुत्तसंबंधो।। गणी-गणावच्छेक वसति के बाहर अकेले रह सकते हैं। यह सुनकर अकृतश्रुत मुनि अतिप्रसंग से अकेले न रह जायेंइसलिए यह सूत्र-रचना है। यही सूत्र का संबंध है। २७०९. एगम्मि वी असंते, ण कप्पती कप्पती य संतम्मि।
उडुबद्धे वासासु य, गीयत्थे देसिए चेव॥
अकृतश्रुत (अगीतार्थ) मुनि अनेक हों परंतु एक भी गीतार्थ मुनि न हों तो वर्षावास और ऋतुबद्ध काल में रहना नहीं कल्पता। एक भी गीतार्थ हो तो रहना कल्पता है क्योंकि गीतार्थ देशक ही होता है। २७१०. किध पुण होज्ज बहूणं, अगडसुताणं तु एगतो वासो।
होज्जाहि कक्खडम्मी, खेत्ते अरसादि चइयाणं॥
अश्रुतज्ञ अनेक मुनियों का एकत्रवास किस कारण से होता है? आचार्य कहते हैं-रस आदि का त्याग न करने वालों का कर्कश क्षेत्र में एकत्र वास होता है। २७११. चइयाण य सामत्थं, संघयणजुयाण आउलाणं पि।
उडुवासे लहु-लहुगा, सुत्तमगीयाण आणादी॥ संहननयुक्त होने पर भी जो मुनि अरस-विरस आदि आहार से त्याजित अर्थात् आकुल-व्याकुल होकर सामत्थपर्यालोचन करते हैं कि हम इस प्रकार कितने समय तक रह पाएंगे। यह सोचकर यदि गणापक्रमण कर ऋतुबद्ध काल में रहते हैं तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा वर्षाकाल में रहते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अगीतार्थ विषयक यह सूत्र न केवल अधिकृत प्रायश्चित्त का ही कथन करता है किंतु आज्ञा आदि दोष भी प्राप्त होते हैं। २७१२. मिच्छत्तसोहि सागारियाइ गेलण्ण अधवा कालगते।
अद्धाण-ओम-संभम, भए य रुद्धे य ओसरिए।। मिथ्यात्व, शोधि, सागारिक, ग्लान अथवा कालगत, अध्वा में, अवमौदर्य, संभ्रम, भय, रुद्ध तथा अपसृत-इस द्वार गाथा की व्याख्या अगली गाथाओं में।
महत् होने के कारण ध्यान 'महापान' कहलाता है।
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