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________________ छठा उद्देशक २५१ आचार्य मंगू के पास आकर बोले-आर्य समुद्र की भांति आपका भक्तपान अलग-अलग पात्रों में क्यों नहीं लाया जाता? आर्य मंगू तब बोले-इस विषय में तुम दोनों ही दृष्टांतरूप हो। २६८९. जा भंडी दुब्बला उ, तं तुब्भे बंधहा पयत्तेण। न वि बंधह बलिया ऊ, दुब्बलबलिए व कुंडी वि॥ ओ शाकटिक! जो भंडी-शकट दुर्बल हो जाता है उसको तुम प्रयत्नपूर्वक बांधते हो। जो शकट मजबूत होता है, उसे नहीं बांधते। हे वैकटिक! तुम अपनी दुर्बल कुंडी-शकटी को बांधते हो और जो मजबूत कुंडी होती है, उसको कुछ नहीं करते। २६९०. एवं अज्जसमुद्दा, दुब्बलभंडी व संठवणयाए। धारंति सरीरं तू, बलि मंडीसरिसग वयं तु॥ २६९१. निप्पडिकम्मो वि अहं, जोगाण तरामि संधणं काउं। नेच्छामि य बितियंगे, वीसुं इति बेंति ते मंगू॥ २६९२. न तरंती तेण विणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु। __ इय अतिसेसायरिए, सेसा पंतेण लाढेती॥ इसी प्रकार आर्य समुद्र दुर्बलभंडी की भांति अपने शरीर को संस्थापित करते हुए धारण करते हैं। हम तो बलिक भंडी के सदृश हैं। हम निष्प्रतिकर्म रहकर भी योगों का संधान करने में समर्थ हैं। हम दूसरे-दूसरे पात्रों में पृथक्-पृथक् आहार लाना पसंद नहीं करते। आर्य समुद्र पृथक्-पृथक् पात्रों में प्रायोग्य द्रव्य लाए जाने के बिना संधान करने में समर्थ नहीं होते। इन कारणों से शेष अतिशेष भी आचार्यों के होते हैं। शेष मुनि अंतप्रांत से जीवन यापन कर लेते हैं। २६९३. अंतो बहिं च वीसुं, वसमाणो मासियं तु भिक्खुस्स। ___ संजमआतविराधण, सुण्णे असुभोदओ होज्जा॥ उपाश्रय के अंतर या बाहिर् अकेले रहने वाले भिक्षु को एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। शून्य स्थान में रहने से अशुभकर्मों का उदय होता है और उससे आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। २६९४. तब्मावुवजोगेणं, रहिते कम्मादिसंजमे भेदो। मेरावलंबिता मे, वेहाणसमादि निव्वेगो॥ पुंवेदोदय के भाव में उपयुक्त होकर जो मुनि अकेला विजन में रहता है तो हस्तकर्म आदि में व्याप्त होकर संयम की विराधना करता है। वह सोचता है-मैंने ब्रह्मचर्य की मर्यादा का अवलंबन लिया था। मैं उसका अब पालन नहीं करता। इस प्रकार निर्वेद को प्राप्त वह भिक्षु फांसी आदि लगाकर आत्मघात कर सकता है। २६९५. जइ वि य निग्गयभावो, तह वि य रक्खिज्जते स अण्णेहिं। वंसकडिल्ले छिण्णो, वि वेलुओ पावए न महिं॥ Jain Education International यद्यपि उस भिक्षु के भाव संयम से निर्गत हो चुके हैं, फिर भी अन्य भिक्षु उसकी इन सब क्रियाओं से रक्षा करते हैं। जैसेबांस के झुरमुट में कोई बांस छिन्न हो जाने पर भी जमीन को प्राप्त नहीं करता क्योंकि अन्य बांसों से वह बीच में ही रोक लिया जाता है। २६९६. वीसु वसंते दप्पा, गणि आयरिए य होंति एमेव। सुत्तं पुण कारणियं, भिक्खुस्स वि कारणेऽणुण्णा॥ दर्प से अर्थात् कारण के बिना गणी, आचार्य यदि अकेले एकांत में रहते हैं तो भिक्षु की भांति ही प्रायश्चित्त आता है तथा संयम और आत्मविराधना होती है। सूत्र कारणिक है अर्थात् कारण के आधार पर प्रवृत्त है। भिक्षु को भी कारण में एकांत में अकेले रहने की अनुज्ञा है। २६९७. विज्जाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे य देंति आयरिया। मासद्धमासियाणं, पव्वं पुण होति मज्झं तु || आचार्य पर्व-पर्व में विद्या की परिपाटी देते हैं-अर्थात् विद्याओं का परावर्तन करते हैं। मास और अर्द्धमास के मध्य पर्व होता है। २६९८. पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । __ अण्णं पि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ।। पक्ष का अर्थात् अर्द्धमास का मध्य है अष्टमी। वह पर्व है। मास का मध्य है पाक्षिक। वह है कृष्ण चतुर्दशी। वह पर्व है। अन्य भी पर्व दिन होते हैं। चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण-ये भी पर्व दिन होते हैं। (इन दिनों में विद्यासाधना की जाती है।) २६९९. चाउद्दसीगहो होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं। वत्तं तु अणज्जंते, होति दुरायं तिरायं वा॥ किसी विद्या का ग्रहण चतुर्दशी को होता है और किसी विद्या का ग्रहण सोलहवें अर्थात् शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को होता है। व्यक्तरूप से अज्ञात होने पर विद्याग्रहण के लिए दो रात अथवा तीन रात तक एकांत में अकेले रहना सम्मत है। २७००. वा सद्देण चिरं पी, महपाणादीसु सो उ अच्छेज्जा। ओयविए भरहम्मी, जह राया चक्कवट्टी वा॥ 'वा' शब्द के द्वारा महाप्राणध्यान आदि के प्रसंग में चिरकाल तक भी अकेले रह सकते हैं। जैसे राजा चक्रवर्ती आदि भरतक्षेत्र प्रसाधित होने पर ही लौटते हैं, वैसे ही ध्यान में जब तक विशिष्ट उपलब्धि नहीं होती तब तक आचार्य उसी में संलग्न रहते हैं। २७०१. बारसवासा भरधाधिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं । तिण्णि य मंडलियस्सा, छम्मासा पागयजणस्स। भरताधिप चक्रवर्ती के महाप्राणध्यान बारह वर्ष का, वासुदेव के छह वर्ष का, मांडलिक राजा के तीन वर्ष का और ...
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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