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________________ छठा उद्देशक २५३ २७१३. मतिभेदा पुव्वोग्गह, संसग्गीए य अभिनिवेसेणं। के निमित्त तथा वैयावृत्त्यकरण के निमित्त) उनको एक-एक गोविंदे य जमाली, सावग तच्चण्णिए गोटे॥ गीतार्थ मुनि दिया जाता है। उनके अभाव में एकाकी अगीतार्थ मिथ्यात्व के चार मुख्य कारण हैं-मतिभेद, पूर्वाग्रह, भी जाते हैं। सार्थ से बिछुड़कर एकाकी हो गए हों तो जब तक न संसर्ग तथा अभिनिवेश। इस विषयक ये उदाहरण हैं-जमालि, मिले तब तक अश्रुतधारी का एकत्र निवास अविरुद्ध है। गोविंद, श्रावकभिक्षु, गोष्ठामाहिल। २७२१. एगाहिगमट्ठाणे, व अंतरा तत्थ होज्ज वाघाते। २७१४. मतिभेदेण जमाली, पुव्वग्गहितेण होति गोविंदो। तेणऽच्छेज्जा तत्थ उ, सेहस्स नियल्लगा बेंति ।। संसग्गि साव भिक्खू, गोट्ठामाहिलऽभिनिवेसेणं॥ २७२२. तत्तो वि पलाविज्जति, गीतत्थबितिज्जगं तु दाऊणं। मतिभेद से मिथ्यात्व जैसे जमालि, पूर्वाग्रह से मिथ्यात्व असतीए संगारो, कीरति अमुगत्थ मिलियव्वं ।। जैसे गोविंद, संसर्ग से मिथ्यात्व जैसे श्रावकभिक्षु तथा एक दिन के गमन-आगमन वाले मार्ग में कहीं व्याघात हो अभिनिवेश से मिथ्यात्व जैसे गोष्ठामाहिल। जाने पर मुनि वहीं रह जाता है। वहां उसके ज्ञातिजन कहते २७१५. आवण्णमणावण्णे, सोहिं न विदंति ऊणमधियं वा। हैं-हम इसको उत्प्रवजित करेगे, घर ले जाएंगे। उसको दूसरे जे य वसधीय दोसा, परिहरति न ते अयाणंता ।। गीतार्थ के साथ पलायन करा दिया जाता है। गीतार्थ के अभाव में २७१६. गेलण्णे वोच्चत्थं, करेंति न य मुयविधिं वि जाणंति। अगीतार्थ के साथ उसे भेजते हए यह संकेत दिया जाता है कि अद्धाणमडंति सया, जयण ण याणेति ओमे वि।। अमुक प्रदेश में मिल जाना। (अगीतार्थ के अभाव में उसे एकाकी अकृतश्रुत-अगीतार्थ मुनि प्राप्त अथवा अप्राप्त प्रायश्चित्त भी भेज दिया जाता है।) को न जानते हुए न्यून अथवा अधिक प्रायश्चित्त दे देते हैं। वे २७२३. रायादुट्ठादीसु य, सव्वेसुं चेव होति संगारो। वसति के दोषों को नहीं जानते, इसलिए उनका परिहार नहीं कर पहाणादि समोसरणे, गीतत्थबितिज्जगं मग्गे।। सकते। वे ग्लान विषयक विपर्यास करते हैं। वे कालगत की विधि २७२४. असती एगाणीओ, निब्बंधे वा बहूणऽगीताणं । को नहीं जानते। वे अध्वा को न जानने के कारण सदा घूमते रहते सामायारीकहणं, मा बहिभावं निलंभित्ता।। हैं। वे अवमौदर्य की यतना को भी नहीं जानते। राजप्रद्विष्ट आदि सभी कार्यों में संकेत दिया जाता है कि २७१७. अगणादिसंभमेसु य, बोहिगमेच्छादिएसु य भएसु। अमुक स्थान में मिल जाना। तथा जिनप्रतिमा के स्नानादि के रायादुट्ठादीसु य, विराहगा जतणऽयाणंता॥ निमित्त तथा समवसरण में अनेक आचार्यों का आगमन होता है। अग्न्यादिक का संभ्रम होने पर, बोधिक स्तेन और म्लेच्छ वहां दूसरे गीतार्थ की याचना की जाती है। गीतार्थ के न मिलने आदि का भय होने पर, राजद्विष्ट आदि में यतना नहीं जानते हुए पर यदि वह एकाकी जाने का आग्रह करता है तो उसे एकाकी वे संयम तथा आत्मविराधक होते हैं। भेजा जाता है अथवा अनेक अगीतार्थ मुनियों के साथ उसे भेजा २७१८. संभमनदिरुद्धस्स वि, उन्निक्खंतस्स फिडितस्स। ओसरियसहायस्स व, छड्डेइ बहिं उवहतो ति।। जाता है। उनको सामाचारी की अवगति दी जाती है। यह इसलिए किया जाता है कि निरुद्ध्यमान होने पर उसका मन संयम से संभ्रम से जो एकाकी हो गया हो, नदीनिरुद्ध हो गया हो, उन्निक्रांत हो गया हो अथवा सार्थ से अलग हो गया हो, जिसके बाहर न चला जाए। सहायक अपसृत हो गए हों, उपधि उपहत हो गए हों, तब वह २७२५. अण्णे गामे वासं, नाऊण निवारितं अगीयाणं। संयम को छोड़ देता है। " सग्गामे वा वीसुं, वसेज्ज अगडा अयं लेसो॥ २७१९. एतेण कारणेणं, अगडसुयाणं बहूण वि न कप्पो। अन्य ग्राम में अगीतार्थ मुनियों का वास निवारित है-ऐसा बितियपद रायदुढे, असिवोमगुरूण संदेसा॥ जानकर अकृतश्रुत मुनि अपने ग्राम में विष्वक्-अकेला वास न इन कारणों से अगीतार्थ मुनियों का एकत्र निवास नहीं करे-यह लेशतः सूत्रसंबंध है। कल्पता। किंतु अपवाद में उनका एकत्र निवास कुछ कारणों से हो २७२६. अगडसुता वाधिकता, समागमो एस होति दोण्हं पि। सकता है। वे कारण हैं-राजा का प्रद्वेष हो जाने पर, अवमौदर्य के सच्छंदऽणिस्सिया वा,निस्सियजतणा विही भणिया। समय अथवा गुरु के संदेश से, आज्ञा से। पूर्वसूत्र में अकृतश्रुत मुनियों की बात थी। प्रस्तुत सूत्र में २७२०. तध नाणादीणट्ठा, एतेसिं गीतो दिज्ज एक्केक्को। भी वही अधिकार है। दोनों सूत्रों का यह समागम है। पहले में असती एगागी वा, फिडिता वा जाव न मिलंति॥ स्वच्छंद अनिश्रित कहे गए हैं। इसमें गीतार्थ निश्रितों की यतना ज्ञान आदि क निमित्त (ज्ञान के निमित्त, दर्शन और चारित्र कही गई है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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