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________________ दसवां उद्देशक ३५७ हैं। ३९७१/२. दिट्ठो मायि अमाई, एवमदिट्ठो वि होति दुविहो उ। ३९७५. एवं नाणे तह दंसणे य सुत्तत्थ-तदुभए चेव। __ अमायी तु अप्पिणिती, माई उन अप्पिणे जो उ|| वत्तण संघण गहणे, णव णव भेदा य एक्केक्के॥ अभिधारक दो प्रकार का होता है-दृष्ट और अदृष्ट । दृष्ट वह इस प्रकार ज्ञान के निमित्त अभिधार्यमाण के आभाव्य का है जो अभिधार्यमाण के साधुओं द्वारा अथवा अन्य किसी द्वारा कथन किया गया। इसी प्रकार दर्शन के निमित्त, सूत्र और अर्थ के दृष्ट है। अदृष्ट वह है जो किसी के द्वारा दृष्ट नहीं है। निमित्त तथा तदुभय के निमित्त, अभिधार्यमाण की आभाव्यता दृष्ट दो प्रकार का होता है-मायी और अमायी। इसी प्रकार । जाननी चाहिए। जो ज्ञान, दर्शन के लिए अभिधारित होता है, अदृष्ट भी दो प्रकार का है। अमायी जो कुछ प्राप्त हुआ है उसे वही सूत्र, अर्थ और तदुभय के लिए होता है। इनके तीन-तीन अर्पित कर देता है, मायी अर्पित नहीं करता। प्रकार हैं-वर्तना-गृहीत का प्रत्यावर्तन करना, संधना-विस्मृति ३९७२. एवं ता जीवंते, अभिधारेंतो उ एइ जो साधू। के कारण त्रुटित श्रुत का संधान करना, ग्रहण-अपूर्व का ग्रहण कालगते एतम्मि उ, इणमन्नो होति ववहारो॥ करना। इस प्रकार ज्ञान और दर्शन-प्रत्येक के नौ-नौ भेद होते इस प्रकार जीवित अभिधार्यमाण का अभिधारण करता। हुआ मुनि जो आता है, उसका यह व्यवहार है, विधि है। अभि- ३९७६. पासत्थमगीतत्था, उवसंपज्जति जे उ चरणट्ठा। धार्यमाण यदि कालगत हो गया है तो यह भिन्न व्यवहार होता है। सुत्तोवसंपयाए, जो लाभो सो उ तेसिं तु॥ ३९७३. अप्पत्ते कालगते, सुद्धमसुद्धे अदिंतदिंते य। पार्श्वस्थ और अगीतार्थ चारित्र के लिए उपसंपदा स्वीकार पुव्विं पच्छा निग्गत, संतमसंते सुते बलिया॥ करते हैं। वे इसके निमित्त जिसकी अभिधारणा कर निर्गमन करते प्रस्तुत गाथा की व्याख्या इस प्रकार है-किसी आचार्य की हैं तथा श्रुतोपसंपदा के बीच जो लाभ होता है, वह अभिधार्यमाण अभिधारणा कर मुनि प्रस्थित होता है। उसके पहुंचने के पूर्व ही का होता है। नालबद्धवल्लीद्विक का लाभ उनका होता है। आचार्य कालगत हो जाते हैं। मार्गगत उसको जो सचित्त आदि ३९७७. गीतत्था ससहाया,असमत्ता जंतु लभति सुह-दुक्खी। का लाभ होता है, वह कालगत आचार्य के शिष्यों का आभाव्य । सुत्तत्थअतक्कंते, समत्तकप्पी उ दलयंति॥ होता है। यदि वह अभिधारक उनको दे देता है तो वह शुद्ध जो गीतार्थ ससहाय हैं अर्थात् पार्श्वस्थ आदि को साथ है-अप्रायश्चित्ती है और यदि नहीं देता है तो वह अशुद्ध लेकर सूत्रार्थ की अतर्कणा करते हुए आ रहे हैं, उनको जो सचित्त है-प्रायश्चित्तभाक् है। तीन विकल्प हैं-१. जब वह अभिधारण अथवा अचित्त का लाभ होता है अथवा जो असमाप्त कल्प वाले कर प्रस्थित हुआ तभी आचार्य कालगत हो गए २. पहले वह गीतार्थ हैं अथवा जो सुख-दुःखी अर्थात् सुख-दुःखोपअभिधारणा कर चला, पश्चात् आचार्य कालगत हो गए। ३. संपद्धारक हैं-एकाकी हैं अथवा जो समाप्तकल्पी हैं, उन्हें जो पहले आचार्य कालगत हो गए, फिर वह अभिधारणा कर निर्गत लाभ प्राप्त होता है, वह उनका ही है। वे अभिधार्यमाण को नहीं हुआ। पूर्व दोनों प्रकारों में सचित्त आदि का लाभ कालगत देते। आचार्य के शिष्यों का आभाव्य होता है। तीसरे प्रकार में यदि ३९७८. अभिधरिज्जंतऽपत्ते, एस वुत्तो गमो खलु। कालगत आचार्य के शिष्य आगत मुनि को श्रुत देते हैं तो शिष्यों पढ़तेसु विधिं वोच्छं, सो उ पाढो इमो भवे॥ को सचित्त आदि का लाभ होता है और यदि श्रुत नहीं है अथवा पूर्वोक्त प्रकार अप्राप्त अभिधार्यमाण विषयक कहा है। आगे नहीं देते हैं तो उनको सचित्त आदि का लाभ नहीं होता। प्रश्न प्राप्त होने पर पढ़ने की विधि कहूंगा। वह वक्ष्यमाण पाठ यह है। होता है कि तीसरे प्रकार में भी कालगत आचार्य के शिष्यों को ३९७९. धम्मकहा सुत्ते या, कालिय तह दिट्ठिवाय अत्थे य। सचित्त आदि का लाभ होता है। ऐसा क्यों कहा गया? उत्तर दिया उवसंपयसंजोगे, दुगमादि जहुत्तरं बलिया॥ गया कि श्रुताज्ञा बलवती होती है। धर्मकथा में, सूत्र में, कालिक में, दृष्टिवाद में, अर्थ में३९७४. लद्धे उवरता थेरा, तस्स सिस्साण सो भवे। इनके पाठार्थ उपसंपदा होती है। द्विकसंयोगी उपसंपदा में मते वि लभते सीसो, जइ से अत्थि देति वा॥ यथोत्तर बलवान होता है। (जैसे-सूत्र में परंपरसूत्र पढ़ानेवाला, सचित्तादिक लब्ध या अलब्ध होने पर भी यदि आचार्य अर्थ में परंपरअर्थ की व्याख्या करने वाला, सूत्रार्थ का पाठ देने उपरत-कालगत हो जाते हैं तो वह लाभ उनके शिष्यों को प्राप्त वाले में अर्थ प्रदाता बलीयान् होता है।) होता है। अभिधारित आचार्य की मृत्यु हो जाने पर भी शिष्य को ३९८०. आवलिय मंडलिकमो, पुव्वुत्तो छिन्नऽछिन्नभेदेणं। वह लाभ होता है, फिर चाहे उसके पास श्रुत हो, अथवा उसे देता एसा सुतोवसंपय, एत्तो सुहदुक्खयं वोच्छं। हो अथवा श्रुत न हो और न देता हो। जो श्रुतोपसंपत् परंपरा से प्राप्त होती है, वह आवलिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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