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________________ ३५६ सानुवाद व्यवहारभाष्य श्रुतसम्पद् के दो प्रकार हैं-अभिधारण करना तथा पढ़ना। धारित को होता है। परंपरवल्ली में भी यही व्याख्या है। उससे प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-अनन्तर और परंपर। 'पर' जो लाभ होता है वह परलाभ है। ३९५९. एत्थं सुयं अहीहामि, सुतवं सो वि अन्नहिं। ३९६६. माउम्माय पिया भाया, भगिणी एव पिउणो वि चत्तारि। वच्चंतो सोऽभिधारतो, सो वि अन्नत्थमेव व॥ पुत्तो धूया य तधा, भाउगमादी चउण्हं पि॥ ३९६०. दोण्हं अणंतरा होति, तिगमादी परंपरा। ३९६७. अढे व पज्जयाई, चउवीसं भाउ-भगिणिसहियाई। सट्ठाणं पुणरेंतस्स, केवलं तु निवेयणा ।। एवं एच्चिय माउलसुतादओ परतरा वल्ली।। मैं इनके पास श्रुताध्ययन करूंगा, यह अभिधारण कर मिश्रवल्ली के सदस्यजाता है, वह श्रुतवान् अन्य का अभिधारण कर जाता है। इस माता की माता, पिता, भाई, भगिनी। पिता की माता, प्रकार दो में अनंतर श्रुतोपसंपद् होती है और तीन आदि में परंपर पिता, भाई, भगिनी। भाता आदि चार (भ्राता, भगिनी, पुत्र और श्रुतोपसंपद् होती है। स्वस्थान पर पुनः आगमन होने पर केवल पुत्री) के पुत्र और पुत्री। तथा भातृ-भगिनी सहित आठ अभिधारित की निवेदना होती है। प्रार्यिकाएं-सारी संख्या २४ होती है। इतनी ही मिश्रवल्ली है। ३९६१. अच्छिन्नुवसंपयाए, गमणं सट्ठाण जत्थ वा छिन्नं। मामा के पुत्र आदि परतरवल्ली में आते हैं। मग्गणकहणपरंपर, छम्मीसं चेव वल्लिदुगं॥ ३९६८. दुविधो अभिधारतो, दिठ्ठमदिट्ठो य होति नायव्वो। अच्छिन्नोपसंपद् वाले को जो अभिधारण करता है उसका अभिधारेज्जंतगसंतएहि दिट्ठो य अन्नेहिं॥ जो लाभ है वह स्वस्थान में चला जाता है। यदि उपसंपद् छिन्न है अभिधारक दो प्रकार का होता है-दृष्ट और अदृष्ट । दृष्ट वह तो लाभ सबको प्राप्त होता है। जिसको पहले अभिधारित किया है जो अभिधार्यमाण के साधुओं द्वारा अथवा अन्य किसी द्वारा था उसको परंपरक ने कहा-तुमको अभिधारण करने वाले को दृष्ट है। अदृष्ट वह है जो किसी के द्वारा देखा नहीं गया है। सचित्त का लाभ हुआ है। यह सुनकर वह उससे सचित्त की मांग ३९६९. सच्चित्ते अंतरा लद्धे, जो उ गच्छति अन्नहिं।। करता है। सचित्त में उसे छह नालबद्ध निर्मिश्र उसे प्राप्त होते हैं जो तं पेसे सयं वावि, नेति तत्थ अदोसवं। तथा निर्मिश्र-मिश्र लक्षण वाली वल्लिद्विक उसे प्राप्त होते हैं। मार्ग में सचित्त की प्राप्ति हुई। उसे लेकर वह अन्यत्र जाता ३९६२. अभिधारेत पढ़ते वा, छिन्नाए ठाति अंतए। है। जो सचित्त का लाभ हुआ है उसे वह अभिधारित के पास भेज मंडलीए उ सट्ठाणं, लभते णो उ मज्झिमे॥ दे अथवा स्वयं उसे ले जाकर दे। वह अदोषी है। छिन्न उपसंपदा में जो अभिधारण करता है अथवा पढ़ता है ३९७०. जो उ लद्धं वए अन्नं, सगणं पेसवेति वा। वह लाभ पर्यंत में रहता है अर्थात् सबको होता है। मंडली में जो दिट्ठा व संतऽदिट्ठा वा, मायी ते होंति दोण्णि वी॥ लाभ प्राप्त होता है वह स्वस्थान अर्थात् व्याख्याता का होता है, जो सचित्त प्राप्त हुआ है उसे लेकर वह अदृष्ट अथवा दृष्ट मध्य में अर्थात् मंडली के मध्यवर्ती का नहीं होता है। होता हुआ अन्य आचार्य के पास जाता है अथवा उस सचित्त को ३९६३. जो उ मज्झिल्लए जाति, नियमा सो उ अंतिमं। अपने गण में भेज देता है। दृष्ट अथवा अदृष्ट दोनों रूप मायावी __ पावते निन्नभूमी तु, पाणियं व पलोट्टियं॥ होते हैं। जो लाभ मंडली के मध्यवर्ती का होता है वह नियमतः ३९७१. ण्हाणादिएसु तं दिस्सा, पुच्छा सिढे हरेति से। अंतिम अर्थात् व्याख्याता का होता है। भूमी पर गिरा हुआ पानी गुरुगा चेव सच्चित्ते, अच्चित्त तिविधं पुण|| निम्न भूमी की ओर जाता है। अभिधार्यमाण को जब सचित्त प्राप्ति की बात ज्ञात हो जाती ३९६४. माता पिता य भाया, भगिणी पुत्तो तधेव धूता य। है तब उसे खोजता हुआ वह स्नान आदि समवसरण में जाता है। एसा अणंतरा खलु, निम्मीसा होति वल्ली उ॥ वहां उसे देखकर पूछता है। जब वह यथार्थ बता देता है तब माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, पुत्री-ये छह निर्मिश्र उसके पास से उस सचित्त को ले लेता है। यदि वह अन्यथा अंतरावल्ली है। कहता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अचित्त ३९६५.सेसाण उ वल्लीणं परलाभो होति दोन्नि चउरोव।। तीन प्रकार का है-जघन्यउपधिनिष्पन्न, मध्यमउपधिनिष्पन्न एवं परंपराए, विभास ततो वि य जा परतो॥ तथा उत्कृष्टउपधिनिष्पन्न । शेष वल्लियों का जो लाभ प्राप्त होता है-पुत्र, पुत्री ये दो ३९७१/१ दुविहो अभिधारतो, दिट्ठमदिट्ठो य होति नातव्वो। अथवा माता, पिता, भाई, भगिनी-ये चार-यह समस्त लाभ अभिधारेज्जंतगसंतएहिऽदिट्ठो य अन्नेहिं।। १. मातामही (नानी) के माता, पिता, भ्राता, भगिनी। पितामह (दादा) के माता, पिता, भ्राता, भगिनी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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