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________________ दसवां उद्देशक ३८७ गच्छ में रहता है। ४३८८. अभिघातो वा विज्जू, ४३८१. एमेव आणुपुव्वी, रोगायंकेहि नवरि अभिभूतो। गिरिभित्ती कोणगादि वा हुज्जा। बालमरणं पि सिया हु, मरिज्ज व इमेहि हेतूहिं।। संबद्धहत्थपादादओ, इसी प्रकार क्रम से व्याघातिम भक्तप्रत्याख्यान के विषय में व वातेण होज्जाहि॥ जानना चाहिए। अंतर केवल इतना ही है कि मुनि रोग और विद्युत् के अभिघात से अथवा गिरिभित्ति के गिरने से होने आतंकों से अभिभूत होकर उसे स्वीकार करता है। यदि वह वाला अभिघात अथवा गिरिकोण से गिरते समय होने वाला निम्नलिखित इन हेतुओं से मरता है तो वह व्याघातिम अभिघात-इनसे बालमरण होता है। भक्तप्रत्याख्यान मरण बालमरण भी हो सकता है। ४३८९. एतेहि कारणेहिं, पंडितमरणं तु काउ असमत्थो। ४३८२. वालच्छ-भल्ल विस विसूइकए ऊसासगद्धपढे, रज्जुग्गहणं व कुज्जाही। आयंक सन्निकोसलए। इन कारणों से (व्यालभक्षण आदि) पंडितमरण करने में ऊसासगद्ध रज्जू, असमर्थ मुनि उच्छ्वासनिरोध, गृध्रपृष्ठ, रज्जुग्रहण (फांसी) ओमऽसिवऽभिघायसंबद्धो॥ व्याल, अच्छभल्ल, विष, विसूचिका, आतंक, संज्ञी ४३९०. अणुपुव्वविहारीणं, उस्सग्गनिवाइयाण जा सोधी। कोशलक-श्रावक कोशलदेशवासी, उच्छवास, गृध्रपृष्ठ, फांसी, विहरंतए न सोधी, भणिता आहारलोवेण ॥ दुर्भिक्ष, अशिव, घात, संबद्ध जकड़न। (व्याख्या आगे के अनुपूर्वविहारी अर्थात् ऋतुबद्धकाल में मासकल्प से तथा श्लोकों में।) वर्षावास में चारमास के कल्प से विहरण करने वालों तथा ४३८३. वालेण गोणसादी, खदितो हुज्जाहि सडिउमारद्धो। उत्सर्ग से संयम पालन करने वालों की जो शोधि होती है, वह कण्णोठ्ठणासिगादी, विभंगिया अच्छभल्लेणं॥ शोधि व्याल आदि व्याघात से विहरण करने वालों की नहीं होती, ४३८४. विसेण लद्धो होज्जा, विसूइगा वा से उद्विता होज्जा। क्योंकि आहार के लोप के कारण वे उत्तरगुणों की वृद्धि नहीं कर आयंको वा कोई, खयमादी उट्ठिओ होज्जा।। पाते। (अतः वे बालमरण स्वीकार कर लेते हैं।) ४३८५. तिण्णि तु वारा किरिया, ४३९१. पव्वज्जादी काउं, नेतव्वं जाव होतऽवोच्छित्ती। तस्स कय हवेज्ज नो य उवसंतो। पंच तुलेऊण य तो, इंगिणिमरणं परिणतो य॥ जध वोमे कोसलेण, प्रव्रज्या लेकर तीर्थ की व्यवच्छित्ति होने तक उसका पालन सण्णीणं पंच उ सयाई॥ करना चाहिए। फिर मुनि पांच तुलाओं (तपः, सूत्र, सत्व, एकत्व ४३८६. साहूणं रुद्धाई, अहयं भत्तं तु तुज्झ दाहामो। और बल) से स्वयं को तोलकर इंगिनीमरण में परिणत हो, उसे लाभंतरं च नाउं, लुद्धेणं धण्णविक्कीयं॥ स्वीकार करे। ४३८७. तो णाउ वित्तिछेदं, ऊसासनिरोधमादिणि कयाइ। ४३९२. आयप्परपडिकम्मं, भत्तपरिण्णाय दो अणुण्णाता। अणधीयासे तेहिं, वेदण साधूहि ओमम्मि ॥ परिवज्जिया य इंगिणि, चउव्विधाहारविरती य॥ व्याल, गोनस-सांप आदि के काटने पर क्षीण होता हुआ, भक्तपरिज्ञा में दो अनुज्ञात हैं-स्वपरिकर्म और परपरिकर्म। अथवा अच्छभल्ल (भालू) के द्वारा कान, ओष्ठ, नाक आदि काट इंगिनी में परपरिकर्म वर्जित है। भक्तपरिज्ञा में चतुर्विध अथवा देने पर अथवा विष से व्याप्त हो जाए, उसके विसूचिका हो जाए, त्रिविध आहार की विरति होती है, इंगिनी में नियमतः चतुर्विध क्षय आदि आतंक उत्थित हो जाए, तीन बार उसकी चिकित्सा आहार की विरति होती है। करा लेने पर भी वह शांत नहीं हुआ तब बालमरण का उपक्रम ४३९३. ठाण-निसीय तुयट्टण, इत्तरियाई जधासमाधीए। करता है तथा एक बार दुर्भिक्ष के समय में कोशल श्रावक ने सयमेव य सो कुणती, उवसग्गपरीसहऽहियासे ।। अन्यत्र विहार कर जाते हुए पांच सौ साधुओं को यह कहकर रोक ४३९४. संघयणधितीजुत्तो, नवदसपुव्व सुतेण अंगा वा। लिया है कि मैं तुमको भक्त दिलाऊंगा। उस लोभी श्रावक ने लाभ इंगिणि पादोवगम, नीहारी वा अनीहारी।। विशेष को जानकर धान्य बेच डाला। मुनियों ने वृत्तिच्छेद को उठना, बैठना, सोना-ये इत्वरिक कार्य वह अपनी समाधि जानकर, वेदना को सहन न कर सकने के कारण के अनुसार स्वयं करता है। वह उपसर्ग और परीषहों को उच्छ्वासनिरोध आदि कर उस दुर्भिक्ष में बाल मरण से मर गए। सम्यक्तया सहन करता है। वह प्रथम तीन संहननों में से किसी (कुछ गृध्रपृष्ठमरण से और कुछ फांसी लेकर मर गए।) एक तथा धृति से युक्त तथा श्रुत से दश-नौ पूर्व अथवा अंगों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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