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________________ सातवां उद्देशक २६९ २९०५. अत्थि त्ति होति लहुगो, कदाइ ओसन्न भुंजणे दोसा। अगीतार्थ के पास आलोचना करे। यदि दोनों मुनि गीतार्थ नत्थि वि लहुगो भंडण, न खेत्तकहणे व पाहुण्णं॥ हैं तो रत्नाधिक गीतार्थ के पास पहले आचोलना करे, फिर अवम ऐसा पूछने पर यदि आचार्य कहते हैं कि समनोज्ञ मुनि हैं रत्नाधिक के पास रत्नाधिक मुनि आलोचना करे। यदि दोनों तो उन्हें लघुमास का प्रायश्चित्त आता है क्योंकि कदाचित् वे समान छत्रछायाक हैं-समरत्नाधिक हैं तो जो आचार्य के पास से अवसन्न हो गए हों। यहां से जाने वाले मुनि उनके साथ भोजन बाद में निर्गत हैं, उसके पास पहले आलोचना करे और फिर करते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि इतर के पास। आचार्य कहे कि वहां मनोज्ञ साधु नहीं हैं तो भी लघुमास का २९११. निक्कारणे असुद्धो उ, कारणे वाणुवायतो। प्रायश्चित्त आता है। भंडन आदि दोष होते हैं। अतः वे मुनि उज्झंति उवधिं दो वि, तस्स सोहिं करेंति य॥ मासप्रायोग्य अथवा वर्षाप्रायोग्य क्षेत्र नहीं बताते और न वे बिना कारण अशुद्ध ग्रहण किया तथा कारणवश अयतना प्राघूर्णकत्व करते हैं। से ग्रहण किया इन दोनों प्रकार की उपधि का परित्याग करते हैं २९०६. आसि तदा समणुण्णा, भुंजह दव्वादिएहि पेहित्ता। और तत्प्रययिक शोधि-प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं। एवं भंडणदोसा, न होति अमणुण्णदोसा य॥ २९१२. एवं तु विदेसत्थे, अयमन्नो खलु भवे सदेसत्थे। इस स्थिति में आचार्य को ऐसे कहना चाहिए-वे मुनि यहां अभिणीवारीगादी, विणिग्गते गुरुसगासातो॥ से विदेश गए तब तक समनोज्ञ थे। अब हमें उनकी स्थिति ज्ञात यह विदेशस्थ मुनियों की यतना कही गई है। यतना का नहीं है। तुम वहां द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परीक्षा कर फिर दूसरा प्रकार स्वदेशस्थ मुनियों का है। अभिनिवारिका आदि उनके साथ भोजन करना। इससे न भंडनदोष होगा और न (भिक्षा के लिए गति-विशेष) के कारण वह मुनि गुरु के पास से अमनोज्ञता के कारण होने वाले दोष होंगे। विनर्गत होता है, पुनः वह गुरु के पास किस वेला में आए-इसका २९०७. णातमणाते आलोयणा तु ऽणालोइए भवे गुरुगा। विवेक आगे की गाथा में। गीतत्थे आलोयण, सुद्धमसुद्धं विगिंचंति॥ २९१३. अनिणीवारी निग्गत, अहवा अन्नेण वावि कज्जेण| ज्ञात-अज्ञात सांभोज की आलोचना देनी चाहिए। तदनंतर विसणं समणुण्णेसुं, काले को यावि कालो उ॥ भोजन व्यवहार करना चाहिए। बिना आलोचना किए भोजन .. अभिनिवारिका के कारण अथवा अन्य कारण से निर्गमन व्यवहार करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। करने पर समनोज्ञ अर्थात् आचार्य के पास उचित काल में प्रवेश आलोचना गीतार्थ के पास करनी चाहिए। वे शुद्ध, अशुद्ध करे। शिष्य ने पूछा-काल कौन सा? आचार्य कहते हैं(उपधि) का पृथक्करण करते हैं। (तदनुरूप प्रायश्चित्त भी देते २९१४. भत्तट्ठिय आवासग, सोधेत्तु मतित्ति पच्छ अवरण्हे। अब्भुट्ठाणं दंडादियाण, गहणेगवयणेणं ।। २९०८. अविणढे संभोगे, अणातणाते य नासि पारिच्छा। भिक्षाचर्या के लिए गए हुए मुनि भिक्षाचर्या कर भोजन से एत्थोवसंपयं खलु, सेहं वासज्ज आरे वी॥ निवृत्त होकर, आवश्यक उच्चार आदि की शुद्धि कर पश्चात् जब तक संभोज अविनष्ट था तब तक ज्ञात-अज्ञात की अपरान्ह में आते हैं तब वहां के वास्तव्य मुनि अभ्युत्थान करते हैं परीक्षा नहीं थी। पहले भी शैक्ष मुनियों की उपसंपदा के आधार तथा एकवचन से-मैं दंड आदि का ग्रहण करता हूं, इस एक वचन पर सांभोजिकों की अज्ञातता होती थी। से दंड आदि का ग्रहण करते हैं। (यह प्रवेश की कालवेला है।) २९०९. महल्लयाय गच्छस्स, कारणेहऽसिवादिहिं। २९१५. खुड्डग विगिट्ठ गामे, उण्हं अवरोह तेण तु पगे वि। देसंतरगताऽणोण्णे, तत्थिमा जतणा भवे॥ पक्खित्तं मोत्तूणं, निक्खिव उक्खित्त मोहेणं ।। महान् गच्छ का एक स्थान पर संस्तरण नहीं होता गांव छोटा है अथवा विकृष्ट है-दूर है तथा अपरान्ह में जाने इसलिए तथा अशिवादी कारणों से मुनि देशांतर गए। इस प्रकार पर बहुत ताप होता है तो मुनि प्रातःकाल में भी प्रवेश कर सकता पृथक्-पृथक् स्थानों में स्थित हैं। पूर्वस्थित और पश्चादागत है। वहां के वास्तव्य मुनि नैषेधिकी शब्द को सुनते ही जो कवल मुनियों का मेलापक होता है वहां वह यतना है। मुंह में प्रक्षिप्त है उसको छोड़कर (निगलकर), जो कवल उठाया २९१०. दोण्णि वि जदि गीतत्था,राइणिए तत्थ विगडणा पुव्विं। है उसे पात्र में डाल दे। फिर ओघ आलोचना से आलोचना कर पच्छा इतरो वि दए, समाणतो छत्तछायाओ। उनके साथ भोजन करे। १. टीकाकार के अनुसार आर्यमहागिरी तक संभोज अविनष्ट था। तब द्रमकप्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद संभोज व्यवस्था विनष्ट हो गई। ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा नहीं होती थी। आर्यसुहस्ति के शिष्य ने फिर परीक्षा होने लगी। (वृत्ति पत्र १४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org हैं।)
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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