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________________ २७० २९१६. जइ वि तव आवण्णो, जा भिन्नो अहव होज्ज नावन्नो । तहियं ओहालोयण, तेण परेणं विभागो उ ॥ घूर्ण मुनि यदि तपार्ह प्रायश्चित्त प्राप्त है परंतु अभी तक भिन्न -छेद आदि प्राप्त नहीं है अथवा तपोर्ह प्रायश्चित्त भी प्राप्त नहीं है तो ओघ आलोचना से आलोचना कर उनके साथ मंडली भोजन किया जा सकता है। भोजनानंतर विभागालोचना से आलोचना कर प्रायश्चित्त स्वीकार करते हैं। २९१७. अधवा भुत्तुव्वरितं संखडि अन्नेहि वावि कज्जेहिं । तं मुक्कं पत्तेयं, इमे य पत्ता तहिं होज्जा ॥ अथवा वास्तव्य मुनियों द्वारा भोजन कर लेने के पश्चात् पर्याप्त भोजन बच गया है, अथवा उन वास्तव्य मुनियों को संखड में निमंत्रित किया गया है, अथवा अन्य कारणों से भी मंडली में, प्रत्येक भोजन करे, उतना भोजन बचा हुआ है, तब उस वेला में प्राघूर्णक पहुंचते हैं तो वास्तव्य मुनि उठकर कहते हैं २९१८. भुंजह भुत्ता अम्हे, जो वा इच्छति य भुत्त सह भोज्जं । सव्वं व तेसि दाउं, अन्नं गेण्हंति वत्थव्वा ॥ हमने भोजन कर लिया, अब आप भोजन करें। जो प्राघूर्णक अभुक्त वास्तव्य मुनि के साथ भोजन करना चाहे वह उनके साथ भोजन करे। यदि प्राघूर्णक मुनियों के लिए वह भोजन पर्याप्त न हो तो वास्तव्य मुनि सारा भोजन उन्हें देकर अन्य भोजन लाएं। २९१९. तिण्णि दिणे पाहुण्णं, सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं । ते तरुणा सग्गामे, वत्थव्वा बाहि हिंडंति ॥ आगत सभी मुनियों का तीन दिन तक प्राघूर्णकत्व करना चाहिए। यदि सभी का न कर सके तो बाल और वृद्ध मुनियों का अवश्य करे। जो प्राघूर्णक तरुण मुनि हों वे स्वग्राम में भिक्षा के लिए घूमते हैं और वास्तव्य तरुण मुनि गांव के बाहर भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। बाहिं । हिंडे | २९२०. संघाडगसंजोगे, आगंतुग भद्दतरे आगंतुगा व बाहिं, वत्थव्वग भद्दए ग्रामवासी लोग यदि आगंतुकभद्रक हों तो प्राघूर्णक एकएक मुनि वास्तव्य मुनि के साथ संघाटक के रूप में भिक्षा के लिए घूमे । इतर बचे हुए वास्तव्य संघाटसंयोग गांव के बाहर उद्भ्रामक भिक्षाचर्या करे। यदि ग्रामवासी वास्तव्यभद्रक हों तो वास्तव्य का एक-एक मुनि प्राघूर्णक मुनि के साथ घूमे। जो प्राघूर्णक मुनियों के संघाटसंयोग बचे हैं वे उद्भ्रामक भिक्षाचर्या के लिए घूमे। सानुवाद व्यवहारभाष्य २९२१. मंडुगगतिसरिसो खलु, अहिगारो होइ बितियसुत्तस्स । संडतो वा दोह वि, होति विसेसोवलंभो वा ॥ दूसरे सूत्र का अधिकार मंडूकगति सदृश है। जैसे दो काष्ठफलकों को एकत्र करने पर फलक संपुट होता है। इसी प्रकार निग्रंथसूत्र के पश्चात् दूसरा निर्ग्रथीसूत्र संपुटसदृश होता है। जो शिष्य निर्ग्रथसूत्र के अनंतर निर्ग्रथीसूत्र पढ़ते हैं उन्हें विशेष उपलंभ होता है, प्राप्ति होती है। निर्ग्रथीसूत्र यदि व्यवहृत हो तो उतनी प्राप्ति नहीं होती । २९२२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो । जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ जो निर्ग्रथसूत्र का व्याख्यागम कहा है, वही नियमतः निर्ग्रथियों के जानना चाहिए। जो नानात्व है उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। २९२३. किं कारणं परोक्खं, संभोगो तासु कीरती वीसुं। पाएण ता हि तुच्छा, पच्चक्खं भंडणं कुज्जा ॥ किस कारण से निर्ग्रथियों का संभोज उनके परोक्षतः पृथक् कर दिया जाता है ? आचार्य कहते हैं-वे निर्ग्रथियां प्रायः तुच्छ होती हैं। प्रत्यक्षतः विसंभोज करने पर वे भंडन करती हैं। २९२४. दोणि वि ससंजतीया, गणिणो एक्कस्स वा दुवे वग्गा । वीसुकरणम्मि ते च्चिय, कवोयमादी उदाहरणा ॥ दो गणी हैं। दोनों ससंयतीक हैं-सतियों सहित हैं। वे परस्पर सांभोजिक हैं। अथवा एक गणी के दो वर्ग हैं-निर्ग्रथवर्ग और निग्रंथीवर्ग और एक के केवल एक वर्ग है-निर्ग्रथवर्ग । वे जिस निर्ग्रथी को विसांभोजिक करना चाहें, उसमें पूर्वोक्त कपोत आदि के उदाहरण है । २९२५. पडिसेवितं तु नाउं, साहंती अप्पणो गुरूणं तु । वि य वाहरिऊणं, पुच्छंती दो वि सब्भावं ॥ किन्हीं साध्वियों ने अकल्पिक का प्रतिसेवन किया है, यह कर अपने गुरु को यह बात बताई। गुरु भी उनको बुलाकर दोनों संयतिवर्गों से सद्भाव की पृच्छा करते हैं। २९२६. जइ ताउ एगमेगं, अहवा वि परं गुरुं व एज्जाही । अहवा वी परगुरुओ, परवतिणी तीसु वी गुरुगा ।। यदि प्रतिसेवना करने वाली साध्वियां तथा गुरु को निवेदन करने वाली साध्वियां एक ही आचार्य की हों, अथवा आत्मीय साध्वियां भी किसी कारण से परगुरु के पास चली गई हों अथवा प्रवर्तिनी परगुरु से उपसंपदा स्वीकार कर ली हो इन तीनों को यदि आचार्य सद्भाव पूछते हैं तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है । १. जैसे मेंढक फुदक-फुदक कर चलता है वैसे ही निग्रंथसूत्र से निर्ग्रथीसूत्र सदृश है, वह मंडूकीगति सदृश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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