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________________ सातवां उद्देशक २७१ २९२७. भंडणदोसा होंती, वगडासुत्तम्मि जे भणितपुव्वं। आता है। मैथुन की आशंका से हरण करने पर चार गुरुमास का सयमवि य वीसुकरणे, गुरुगा चावल्लया कलहो॥ और निःशंकित मैथुन के लिए हरण करने पर मूल प्रायश्चित्त इन तीनों को स्वयं पूछने पर भंडन दोष होते हैं, जिनका आता है। कथन पहले कल्पाध्ययन के प्रथम उद्देशक में 'वगडासूत्र' में २९३३. अवि धूयगादिवासो, पडिसिद्धो तह य वास सइगाहिं। किया गया है। यदि वे संयतियां स्वयं ही विसांभोजिक करती हैं वीसत्थादी दोसा, विजढा एवं तु पुव्वुत्ता।। तो उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण है पुत्री आदि के साथ तथा स्वजनों के साथ वास करना भी कि उनकी चपलता के द्वारा परस्पर कलह हो सकता है। प्रतिषिद्ध है। इससे विश्वस्तता त्यक्त हो जाती है तथा अनेक दोष २९२८. पत्तेयं भूयत्थं, दोण्हं पि य गणहरा तुलेऊणं। उत्पन्न होते हैं-ऐसा पहले (सूत्रकृतांग में) कहा जा चुका है। मिलिउं तग्गुणदोसे, परिक्खिरं सुत्तनिद्देसो॥ २९३४. पव्वावणा सपक्खे, परिपुच्छउ दोसवज्जिते दिक्खा। दोनों गणधर-आचार्य दोनों संयतिवर्ग के प्रत्येक के भूतार्थ एयं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो तु कारणिओ॥ को जानकर, उनको तोले तथा एकत्र मिलाकर दोनों वर्गों के गुण प्रव्राजना सपक्ष में करनी चाहिए-पुरुषों को निग्रंथ दोषों की परीक्षा करे, फिर सूत्र निर्देश करे। प्रवजित करे और स्त्रियों को साध्वियां प्रव्रजित करें। दीक्षा देनी २९२९. संभोगम्मि पवत्ते, इमा वि संभुंजते उवट्ठविउं। हो तो उसको पूछकर तथा दोषवर्जित स्त्री-पुरुषों को देनी सीसायरियत्ते वा, पगते न दिक्खंति दिक्खे या॥ चाहिए। शिष्य ने पूछा-यदि यह तत्व है तो सूत्र अफल-निरर्थक पूर्व सूत्रद्वय में संभोज प्रवृत्त था। प्रस्तुत सूत्र में हो जाएगा। आचार्य ने कहा-सूत्रनिपात कारणिक है, कारणवश उपस्थापना के पश्चात् संभोज प्रवृत्त है। अथवा शिष्यत्व- सूत्र प्रवृत्त हुआ है। आचार्यत्व प्रकृत होने पर भी प्रस्तुत सूत्रद्वय से यह कहा गया है २९३५. कारणमेगमडंबे, खंतियमादीसु मेलणा होति। कि दूसरे के लिए निग्रंथी को दीक्षित किया जाता है, स्वयं के लिए पव्वज्जमब्भुवगते, अप्पाण चउविधा तुलणा।। नहीं। एक मुनि अशिव आदि कारण से एकाकी हो गया। वह २९३०. अण्णट्ठमप्पणो वा, पव्वावण चउगुरुं च आणादी। 'एकमडंब' में आया। वहां उसके माता, भगिनी आदि का मिच्छत्त तेण संकट्ठ, मेहुणे गाहणे जं च॥ मेलापन होता है। वे प्रव्रज्या के लिए तैयार होती हैं। उनके दूसरों के प्रयोजन से अथवा स्वयं के प्रयोजन के लिए प्रव्रज्या के लिए तैयार होने पर साधु को चार प्रकार की तुला निग्रंथी को प्रवाजित करने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) से अपने आपको तोलना चाहिए। तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा मिथ्यात्व का प्रसंग। स्तैन्य की २९३६. असिवादिकारणगतो, वोच्छिन्नमडंब संजतीरहिते। शंका से, मैथुन की शंका से तथा ग्रहण-कंचुक, संघाट ग्रहण की कधिताकधितउवट्ठित, असंक इत्थी इमा जतणा।। शंका से प्रव्रजित करता है, तो तद्-तद् विषयक प्रायश्चित्त प्राप्त एक साधु अशिवादि कारणों से व्यवच्छिन्न और संयति होता है। रहित मडंब में गया। वहां धर्म कहने या न कहने पर भी माता २९३१. तेणट्ठ मेहुणे वा, हरति अयं संकऽसंकिते सोधी। आदि व्रतग्रहण करने के लिए अभ्युद्यत हो गए। उन अंशकनीय ___ कक्खादमिक्खदसण णित्थक्कं वोभए दोसा।।। स्त्रियों के प्रति यह यतना है स्तैन्य की आशंका से अथवा अनाशंका से अथवा मैथुन २९३७. आहारादुप्पायण, दव्वे समुई च जाणती तीसे। की आशंका से अथवा अनाशंका से निपॅथी का हरण करता है, जदि तरति गंतु खेत्ते, आहारादीणि वद्धाणे॥ प्रव्रजित करता है तो उसको प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तथा उसके २९३८. गिम्हादिकालपाणग, कक्षा आदि के बार-बार अवलोकन करने से आत्मोभय दोष निसिगमणमादिसु वावि जइ सत्तो। (स्व-परदोष) प्राप्त होते हैं। भावे कोधादिजओ, २९३२. हरति त्ती संकाए, लहुगा गुरुगा य होति नीसंके। गाहणणाणे य चरणे य॥ मेहुणसंके गुरुगा, निस्संकिय होति मूलं तु॥ उस यतना के चार घटक हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। कोई प्रव्रज्या के व्याज से निपॅथी का हरण करता है इस द्रव्य में अर्थात् आहार आदि के उत्पादन में वह समर्थ है। संमुइ आशंका से उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आशंका अर्थात् वह प्रव्रजित होने वाली स्त्री का स्वभाव जानता है। क्षेत्रतः के अभाव में निःशंक हरण करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त अर्थात् मार्ग में आहार आदि के उत्पादन के लिए वह जाने में १. 'एकमडंब' ऐसा निवेशस्थान जिसके चारों दिशाओं में कोई अन्य ग्राम या नगर न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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