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________________ २७२ सानुवाद व्यवहारभाष्य समर्थ है। ग्रीष्म आदि काल में वह पानक लाने में समर्थ है, शीत प्रकार की औषधियां थीं। आज मुनि जीवन में वे प्राप्त नहीं हैं। और वर्षाकाल में प्रायोग्य द्रव्य के संपादन में शक्त है, तथा २९४४. अद्धाण दुक्खसेज्जा, सरेणु तमसा य वसहिओ खेत्ते। भावतः क्रोध आदि पर जय प्राप्त करने में समर्थ है तथा प्रव्रजित परपादेहि गताणं, वुत्थाण य उदुसुघरेसुं॥ होने की इच्छुक को ज्ञान और चारित्र को प्राप्त कराने में समर्थ क्षेत्र विषयक पृच्छा-प्रव्रज्या से पूर्व तुम सदा दूसरे के है-वह प्रवाजित कर सकता है। चरणों से चलते थे। (अर्थात् वाहन आदि से जाते थे), प्रत्येक २९३९. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउकाम जो उ पव्वावे। ऋतु में सुखकारी घरों में रहना होता था, परंतु अब मार्ग में गुरुगा अविज्जमाणे, अन्ने गणधारणसमत्थे। स्वचरणों से गमन करना दुःखदायी है। वसति सरेणुका मिलती जो अभ्युद्यतविहार अथवा अभ्युद्यतमरण-इन दोनों में से है और वह भी अंधकारमय। एक को ग्रहण करने का इच्छुक मुनि यदि प्रवजित करता है और २९४५. आहारा उवजोगो, जोग्गो जो जम्मि होति कालम्मि। यदि अन्य व्यक्ति गणधारण करने में समर्थ नहीं है तो सो अन्नहा न य निसिं, कालेऽजोग्यो य हीणो य॥ अभ्युद्यतविहार अथवा मरण स्वीकार करने वाले को चार गृहस्थावस्था में जिस काल में जो योग्य आहार आदि का गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उपयोग होता है, वह प्राप्त होता है। मुनि बनने के बाद वह आहार २९४०. जो वि य अलद्धिजुत्तो, पव्वावेतस्स होति गुरुगा उ। आदि का उपयोग अन्यथा हो जाता है। रात्री में वह उपयोग तम्हा जो उ समत्थो, सो पव्वावेति ताओ वा॥ सर्वथा निषिद्ध होता है। आहार आदि का उपयोग काल में भी जो अलब्धियुक्त है और वह प्रव्रजित करता है तो उसे चार कभी अयोग्य होता है और वह भी हीन-परिपूर्ण नहीं होता। (यह गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह असमर्थता का प्रायश्चित्त कालविषयक पृच्छा है।) है। जो समर्थ है वह उन माता आदि को प्रव्रजित कर सकता है। २९४६. सव्वस्स पुच्छणिज्जा, २९४१. एव तुलेऊणऽप्पं, सा वि तुलिज्जति उ दव्वमादीहिं। न य पडिकूलेण सइरि मुदितासि। कायाण दायणं दिक्ख, सिक्ख इत्तरदिसा नयणं ।। खुड्डी वि पुच्छणिज्जा, इस प्रकार स्वयं को द्रव्य आदि से तोलकर तथा प्रव्राजित चोदण फरुसा गिरा भावे॥ होने वाली स्त्री को भी द्रव्य आदि से तोलना चाहिए। फिर उसे गृहस्थावस्था में तुम सबसे के लिए पृच्छनीय थी-- सभी षट्काय का दर्शन बताना चाहिए, पूरी जानकारी देनी चाहिए। तुमको पूछते थे। वहां कोई प्रतिकूलता नहीं थी। तुम स्वेच्छा से तत्पश्चात् दीक्षा और शिक्षा देनी चाहिए। फिर उसे इत्वरिक दिग-अर्थात् कहना चाहिए कि जब तक आचार्य के पास न जाएं सदा प्रसन्न रहती थी। व्रतग्रहण के पश्चात् छोटी से छोटी साध्वी तब तक मैं ही तुम्हारा आचार्य हूं और मैं ही प्रवर्तिनी। फिर उसे को भी तुमको पूछना पड़ेगा। तुमको परुषभाषा से प्रेरणा दी जाएगी-यह भावविषयक पृच्छा है। विधिपूर्वक गुरु के पास ले जाना चाहिए। २९४७. जा जेण वयेण जधा, व लालिता तं तदन्नहा भणति। २९४२. पेज्जादिपायरासा, सयणासण-वत्थ-पाउरणदव्वे। दोसीण दुब्बलाणि य, सयणादि असक्कया एण्हिं।। सोयादि कसायाणं, जोगाण य निग्गहो समिती॥ गृहस्थावस्था में प्रातराश, शयनासन, वस्त्र, प्रावरण आदि जो प्रव्रजित होने वाली तरुणी जिस अवस्था में जिस उन्नत और कालोचित प्राप्त थे। मुनि बनने के पश्चात् प्रातराश के प्रकार से लालित पालित हुई थी, उन वचनों से विपरीत वह लिए वासी भात, शयन आदि दुर्बल मिलते हैं, वस्त्र और प्रावरण कहता है-प्रवजित होने के पश्चात् श्रोत्र आदि इंद्रियों, कषायों ऐसे मिलते हैं जिनका उपयोग अशक्य होता है, यह द्रव्य विषयक तथा योगों का निग्रह करना होगा तथा समितियों का पालन पृच्छा है। करना पड़ेगा। २९४३. पडिकारा य बहुविधा, २९४८. आलिहण सिंच तावण, वीयण दंतधुवणादि कज्जेसु। विसयसुहा आसि भेण पुण एण्टिं। __ कायाण अणुवभोगो, फासुगभोगो परिमितो य॥ वत्थाणि ण्हाण धूवण, (उसे पृथिवी आदि कायों का विवेक दें।) पृथ्वी का विलेवणं ओसधाइं च ॥ आलेखन न करे, उदक से सिंचन, अग्नि से तापन, वायु से गृहस्थावस्था में व्याधि आदि के प्रतीकार बहुविध थे। व्यजन तथा दांत प्रक्षालन आदि कार्यों में इन कायों का अनुपभोग विषयसुख के साधन भी अनेक प्रकार के थे। जैसे-मनोज्ञ वस्त्र, हो। यदि प्रयोजन हो तो प्रासुक कायों का परिभोग करें और वह स्नान, धूप, विलेपन आदि। व्याधि के प्रतीकार के लिए अनेक भी परिमित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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