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________________ ६ और आरंभ) सम्मत है। ऋजुसूत्र आदि शुद्ध नय बाह्य वस्तुगत हिंसा नहीं मानते। उनके मत में आत्मा ही हिंसा है, हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है। ५१. चोएइ किं उत्तरगुणा, पुव्वं बहुय-थोव-लहुयं च । अतिसंकिलिट्टभावो, मूलगुणे सेवते पच्छा ॥ शिष्य ने पूछा- मूलगुण प्रतिसेवना से पूर्व उत्तरगुण प्रतिसेवना का कथन क्यों किया गया ? आचार्य ने कहाउत्तरगुण बहुत हैं, मूलगुण अल्प हैं। उत्तरगुणों की प्रतिसेवना लघुक - शीघ्र हो जाती है। मूलगुणों की प्रतिसेवना अतिसंक्लिष्ट भावों से होती है। इसलिए मूलगुणों की प्रतिसेवना का कथन बाद में किया है। ५२. पडिसेवियम्मि दिज्जति, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे । तेण पडिसेवणच्चिय पच्छित्तं वा इमं दसहा ।। प्रतिसेवना होने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है अन्यथा प्रायश्चित्त का प्रतिषेध है। इसलिए कारण में कार्य का उपचार कर प्रतिसेवना को ही प्रायश्चित्त कहा गया है। उसके दस भेद हैं। ५३. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तव छेय-मूल- अणवट्ठया य पारंचिए चेव ।। प्रायश्चित्त के दस प्रकार ये हैं- १. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल ९. अनवस्थित १०. पारांचित । ५४. आलोयण त्ति का पुण, कस्स सगासे व होति कायव्वा । केसु व कज्जेसु भवे, गमणागमणादिसुं तु ।। आलोचना' क्या है ? वह किसके पास करनी चाहिए ? वह 'किस प्रकार के कार्यों ( आचरणों) में की जाये ? गमनागमन आदि आवश्यक कार्यों की आलोचना की जाती है। ५५. बितिए नत्थि वियडणा, वा उ विवेगे तथा विउस्सग्गे । आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते य केसिंचि ।। दूसरा है प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त। इसमें आलोचना नहीं की जाती। विवेकार्ह और व्यूत्सर्गार्ह प्रायश्चित्त में आलोचना वैकल्पिक है-कभी की जाती है और कभी नहीं । नियमतः आलोचना गीतार्थ के पास ही करनी चाहिए । कुछेक आचार्यों का अभिमत है कि गीतार्थ की अनुपस्थिति में अगीतार्थ के पास भी की जा सकती है। पचना १. आलोचना क्या है ? अवश्यकरणीय कार्य से पूर्व अथवा कार्य की समाप्ति पर अथवा कार्य करने से पूर्व भी और पश्चात् भी गुरु के समक्ष वचन से प्रकट करना । (वृ. पत्र २१ ) Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य ५६. करणिज्जेसु उ जोगेसु, छउमत्थस्स भिक्खुणो । आलोयणा व पच्छित्तं, गुरुणं अंतिए सिया ।। अवश्यकरणीय संयम योगों के लिए छद्मस्थ भिक्षु को गुरु के पास आलोचना प्रायश्चित्त करना चाहिए। * ५७. भिक्ख वियार-विहारे, अन्नेसु य एवमादिकज्जेसु । अविगडियम्मि अविणओ, होज्ज असुद्धे व परिभोगो ॥ भिक्षाचर्या, उच्चारभूमि तथा स्वाध्यायभूमि से तथा इसी प्रकार के अन्यान्य कार्यों से लौटकर मुनि गुरु के पास आलोचना प्रायश्चित्त ग्रहण करे। आलोचना न करने पर वह अविनय तथा अशुद्ध परिभोग- इन दो दोषों का भागी होता है। ५८. अन्नं च छाउमत्थो, तधन्नहा वा हवेज्ज उवजोगो । आलोएंतो ऊहइ, सोउं च वियाणते सोता ।। छद्मस्थ मुनि का उपयोग यथार्थ अथवा अयथार्थ भी हो सकता है। वह आचार्य आदि के पास आलोचना करता हुआ स्वयं के ही ऊहापोह के द्वारा यथार्थ अथवा अयथार्थ को जान लेता है अथवा आलोचना को सुननेवाले आचार्य आदि तथा अन्य श्रोताओं से भी शुद्धाशुद्धि की बात सुनकर स्वयं शुद्धअशुद्ध को जान लेता है। ५९. आसंकमवहितम्मि य, होति सिया अवहिए तहिं पगतं । गणतत्तिविप्पमुक्के, विक्खेवे वावि आसंका ।। स्यात् शब्द के दो अर्थ हैं- आशंका और अवधारण । प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द अवधारण अर्थ में प्रयुक्त है। नियमतः आलोचना प्रायश्चित्त आचार्य के पास करना होता है। 'स्यात्' शब्द को आशंका अर्थ में प्रयुक्त मानने पर यदि आचार्य गणत ( गण की चिंता ) से विप्रमुक्त हो गये हों तो उपाध्याय के पास तथा उपाध्याय के भी कोई व्याक्षेप हो तो गीतार्थ के पास और उसके अभाव में अगीतार्थ के पास आलोचना करे । प्रति ६०. गुत्तीसु य समितीसु य, पडिरूवजोगे तहा पसत्थे य । वतिक्कमे अणाभोगे, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ।। तीन गुप्तियों, पांच समितियों, प्रतिरूप विनयात्मक योगों तथा प्रशस्त योगों से प्रमाद होने पर तथा अतिक्रम आदि में और अनजान में अकृत्य की प्रतिसेवना करने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त (मिच्छामी दुक्कडं.) प्राप्त होता है। ६१. केवलमेव अगुत्तो, सहसाणाभोगतो व ण य हिंसा । हियं तु पडिक्कमणं, आउट्टि तवो न वाऽदाणं ।। जो मुनि केवल अगुप्त अथवा असमित है, उससे २. 'छउमत्थस्स हवई आलोयणा, न केवलिणो इति । ' (वृ. पत्र २२ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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