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________________ पहला उद्देशक उसे पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने उसे ४५३. चोदग पुरिसा दुविधा, गीताऽगीत-परिणामि इतरे य। मृत्युदंड दिया। शेष सारे दंड उसी में समा गये। इसी प्रकार दोण्ह वि पच्चयकरणं, सव्वे सफला कता मासा ।। लोकोत्तर में भी अनेक अपराधपदों में एक गुरुतर दंड देना विरुद्ध वत्स! पुरुष दो प्रकार के होते हैं-गीतार्थ और अगीतार्थ । नहीं है। अगीतार्थ के तीन प्रकार हैं-परिणामी, अपरिणामी और ४५१. संघयणं जध सगडं, घिती उ धोज्जेहि होति उवणीया। अतिपरिणामी। अपरिणामी और अतिपरिणामी-इन दोनों को बिय तिय चरिमे भंगे, तं दिज्जति जं तरति वोढुं ।।। विश्वस्त करने के लिए प्रायश्चित्त में प्राप्त सभी मासों को (दुर्बल के आधार पर दोषों का एकत्व-भंडी (शकट) का स्थापना-आरोपणा के विधान से सफलकर-समझाकर फिर दृष्टांत-चार विकल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। १.भंडी बलवान बैल भी बलवान। ३. भंडी दुर्बल बैल बलवान। ४५४. वणिमरुगनिही य पुणो, दिटुंता तत्थ होति कायव्वा । २. भंडी बलवान बैल दुर्बल। ४. भंडी दुर्बल बैल भी दुर्बल। गीतत्थमगीताण य, उवणयणं तेहि कायव्वं ।। पहले विकल्प में पूरा भार डाला जा सकता है। दूसरे गीतार्थ और अगीतार्थ के विषय में वणिक, मरुक और विकल्प में बैल जितना भार खींच सकते हैं, उतना भार डाला निधि के दृष्टांत कहने चाहिए। वणिक् के साथ गीतार्थ का जाता है। तीसरे विकल्प में उतना भार डाला जाता है, जिससे उपनयन और मरुक का अगीतार्थ के साथ उपनयन करना भंडी टूट न जाए। चौथे विकल्प में उतना भार डाला जाता है, चाहिए। जिससे भंडी भी न टूटे और बैल भी उस भार को खींच सके) ४५५. वीसं वीसं भंडी, वणिमरुसव्वा य तुल्लभंडीओ। जैसा शकट (भंडी) वैसा संहनन, धृति धौरेय से उपमित है वीसतिभागं सुकं, मरुगसरिच्छो इहमगीतो ।। अर्थात् धौरेय तुल्य है। प्रायश्चित्त के चार विकल्प होते हैं-प्रथम एक वणिक् और मरुक-दोनों बीस-बीस शकटों में माल भंग में जितना प्रायश्चित्त प्राप्त है, उतना दिया जाता है। द्वितीय भरकर व्यापारार्थ निकले। सभी शकटों में समान वजन का माल भंग में धृति के अनुरूप, तृतीय भंग में संहनन के अनुरूप और था। शुल्कगृह के पास वे रुके। शौल्किक ने प्रत्येक शकट से चतुर्थ भंग में धृति और संहनन-दोनों के अनुरूप। दूसरे, तीसरे । बीसवां भाग शुल्करूप में मांगा। वणिक् ने बीस शकटों में से एक और चौथे विकल्प में आलोचक जितना वहन कर सकता है, शकट शुल्करूप में दे दिया। मरुक ने प्रत्येक शकट से बीसवांउतना प्राश्यचित्त दिया जाता है। बीसवां भाग दिया। वणिक् सदृश होता है गीतार्थ और मरुक ४५२. निवमरण मूलदेवो, आसऽहिवासे व पट्टि न तु दंडो। सदृश होता है अगीतार्थ। संकप्पिय गुरुदंडो, मुच्चति जं वा तरति वोढुं ।। ४५६. अहवा वणिमरुगेण य, निहिलंभऽनिवेदिते वणियदंडो। नगर का राजा मर गया। वह अपुत्र था। राज्यचिंतकों ने मरुए पूयविसज्जण, इय कज्जमकज्ज जतमजते ।। अश्व को अधिवासित कर नगर में छोड़ा। चोर मूलदेव चोरी एक वणिक को भूमि में निधि मिली। उसने राजा को करते पकड़ा गया। उसे वधस्थान की ओर ले जा रहे थे। वह इसकी जानकारी नहीं दी। राजा ने उसे दंडित किया और निधि अश्व मूलदेव के पास आकर रुका और उसे पीठ दी। मूलदेव भी ले ली। एक मरुक को भी इसी प्रकार की निधि मिली। उसने राजा बन गया। वह दंडमुक्त हो गया। राजा को जानकारी दी। राजा ने मरुक का सम्मान किया और एक बहुश्रुत मुनि को गुरुक दंड प्राप्त हुआ। वह आचार्य निधि भी उसको दक्षिणा के रूप में दे दी। इस दृष्टांत से कार्ययोग्य था। आचार्य कालगत हो गये। उसे आचार्य पद पर अकार्य के प्रसंग में यतमान और अयतमान का उपनयन करना स्थापित कर दिया। वह दंडमुक्त हो गया। अथवा वह जितना दंड चाहिए। (जो कार्य में यतनाकारी होता है, वह मरुक की भांति वहन कर सकता है, उसे वह प्रायश्चित्त दिया जाता है। पूजनीय होता है और वह समस्त प्रायश्चित्त से मुक्त हो जाता है। ४५२/१ एगत्तं दोसाणं, दिट्ठ कम्हा उ अन्नमन्नेहिं। जो कार्य में अयतनाकारी और अकार्य में यतनाकारी होता है वह मासेहिं तो घेत्तुं, दिज्जति एगं तु पच्छित्तं ।। वणिक् की भांति दंडनीय होता है।) शिष्य ने कहा-दोषों के एकत्व के विषय में जान लिया। ४५७. मरुगसमाणो उ गुरू, पूतिज्जति मुच्चती य सव्वं से। परंतु स्थापना-आरोपणा के माध्यम से परस्पर दिनों अथवा साधू वणिओ व जधा, वाहिज्जति सव्वपच्छित्तं ।। मासों को लेकर या उन्हें निकाल कर प्रायश्चित्त क्यों देते हैं ? जो मरुक के समान होते हैं गुरु। वे पूजे जाते हैं तथा प्राप्त आगमानुसार प्रायश्चित्त प्राप्त होता है वह क्यों नहीं देते? सभी प्रायश्चित्तों से उन्हें मुक्त कर दिया जाता है। जो साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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