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________________ ५० अथवा पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त तथा पांच रात-दिन की प्रतिसेवना में एक मास अथवा अनेक मासों का प्रायश्चित्त देते हैं। आदि-आदि) ४४२. विभंगी व जिणा खलु, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोधी य ओसहाई, तीए जिणा उ वि सोहंति ।। विभंगज्ञानी के तुल्य 'जिन', रोगीतुल्य हैं साधु, रोगतुल्य हैं अपराध, औषधतुल्य हैं प्रायश्चित्त अर्थात् शोधि उस शोधि से 'जिन' विशोधि करते हैं। इस प्रकार 'जिन' को लक्षित कर दोषों का एकत्व किया गया है।) ४४३. एसेव य दिट्ठतो, विब्भंगिकतेहि वेज्जसत्थेहिं । भिसजा करेंति किरियं, सोहेंति तधेव पुव्वधरा ।। यही दृष्टांत - घृतकुट दृष्टांत अथवा औषधलक्षण दृष्टांत चतुर्दशपूर्वी में भी योजनीय है जैसे वैद्य विभंगज्ञानी द्वारा कृत वैद्यकशास्त्रों के आधार पर रोगापनयन की क्रिया करते हैं, वैसे ही चतुर्दशपूर्वधर यावत् अभिन्न दशपूर्वधर जिनोपदिष्ट शास्त्रों के आधार पर प्रायश्चित देकर अपराध की शोधि करते हैं। ४४४. नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो । तध पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेणं ।। यहां नालिका ( घटिकायंत्र) की प्ररूपणा करनी चाहिए। जैसे नालिका से जल के निकलने के आधार पर दिवस या रात्री का बीता हुआ काल (अथवा अवशिष्ट काल) जाना जाता है, वैसे ही पूर्वधर आचार्य या मुनि आचोलना करने वाले के भावअभिप्राय जान लेते हैं। अभिप्राय को जानकर आलोचक की जितने प्रायश्चित्त से विशोधि होती है, उसको उतना प्रायश्चित्त देते हैं। ४४५. मास-चउमासिएहिं, बहूहि वेगं तु दिज्जते सरिसं । असणादी दब्बाओ, विसरिसवत्थूसु जं गुरुगं ।। (जाति के दो प्रकार है-प्रायश्चित्तकजाति तथा द्रव्यजाति) अनेक मासिक तथा चातुर्मासिक प्रतिसेवना करने वाले को भी प्रतिसेवित मासों की सदृशता के कारण एक मास अथवा चातुर्मासिक प्राश्यचित्त दिया जाता है। (यह प्रायश्चित्तक जाति का एकत्व है।) द्रव्यजातिक एकत्व -अशन आदि द्रव्यों के आधार पर दोषों का एकत्व होता है और उसके आधार पर प्रायश्चित दिया जाता है। इसी प्रकार विसदृश वस्तु-दोषों के होने पर जो गुरुतर दोष होता है उसके आधार पर सभी दोषों का एक ही प्रायश्चित्त दिया जाता है। " ४४६. अगारीय दिट्ठतो, एगमणेगे य ते य भंडी चउक्कभंगो, सामिय पत्ते य १. विस्तार के लिए देखें वृत्ति पत्र ९१-९२ । Jain Education International अवराधा । तेणम्मि ।। सानुवाद व्यवहारभाष्य एक अनेक अपराधों में अगारी का दृष्टांत, भंडी विषयक चार विकल्प, स्वामित्वप्राप्ति में स्तेन का दृष्टांत। (इनका विवरण श्लोक ४४८ से ४५२ में देखें।) ४४७ णीसज्ज वियहणाए एगमणेगे व होति चउमंगो । वीसरि उस्सण्णपदे, बिति तति चरिमे सिया दोवि ।। निषद्या और विकटना - आलोचना की चतुभंगी । एक अथवा अनेक निषद्या तथा एक अथवा अनेक आलोचना । प्रथम भंग - एक निषद्या - एक आलोचना । द्वितीय भंग - विस्मृति होने पर एक निषद्या - अनेक आलोचना। तृतीय भंग - अनेक निषद्या - एक आलोचना । जैसे 'उस्सण्णपद' अर्थात् प्रभूतकाल तक अनेक प्रतिसेवनाएं कर एक दिन में आलोचना न कर सकने पर अनेक दिनों तक निषद्या कर आलोचना करना अथवा गुरु के कायिकभूमि में अनेक बार जाने आने पर अनेक निषधा तथा एक आलोचना । चरम भंग अथवा चौथे भंग में अनेक निषद्या और अनेक आलोचना । - ४४८. गावी पीता वासी, य हारिता भायणं च ते भिन्नं । अज्जेव ममं सुदयं, करेहि पडओ वि ते नो । ४४९. एगावराहवंडे, अण्णे य कहेतऽगारि हम्मंती । एवं णेगपदेसु वि, दंडो लोगुत्तरे एगो ।। अगारी दृष्टांत - एक रथकार की पत्नी घर को खुला छोड़कर अपनी सहेली के घर चली गई। रथकार घर आया। सूने घर को देखकर वह कुपित हो गया। पत्नी घर आयी । रथकार घर को सूना छोड़ जाने के अपराध में पत्नी को पीटने लगा। उसने सोचा- एक अपराध के लिए यह मुझे पीट रहा है। मेरे द्वारा अन्यान्य अपराध भी हुए हैं। उन्हें जान लेने पर यह मुझे बारबार पीटेगा। अच्छा है यह मुझे आज ही सुहत अच्छी तरह से पीट ले। वह पति को कहने लगी- आज बछड़े ने गाय को घूंघ लिया है। वासी कोई चुरा ले गया। तुम जिस कांस्य भाजन में भोजन करते हो, वह टूट गया। तुम्हारा वस्त्र भी कोई ले गया । जितनी उसकी पिटाई होनी थी वह एक दिन में हो गई। इसी प्रकार लोकोत्तर विषय में भी अनेक अपराधों का एक गुरुतर दंड दिया जाता है। ४५० णेमासु चोरियासुं मारणावंडो न सेसगा दंडा । एवं णेगपदेसु वि, एक्को दंडो उ न विरुद्धो ।। एक चोर ने अनेक प्रकार की चोरियां कीं। एक बार उसने राजप्रासाद में सेंध लगाकर रत्नों को चुरा लिया। आरक्षकों ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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